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________________ मीमांसक द्वारा सर्वज्ञ का अभाव ] प्रथम परिच्छेद [ २५६ एकशास्त्र विचारेषु दृश्यतेतिशयो महान् । न तु शास्त्रान्तरज्ञानं तन्मात्रेणैव लभ्यते ॥४॥ ज्ञात्वा व्याकरणं दूरं बुद्धिः शब्दापशब्दयोः। प्रकृष्यते न नक्षत्रतिथिग्रहणनिर्णये ॥५॥ ज्योतिविच्च प्रकृष्टोपि चन्द्रार्कग्रहणादिषु । न भवत्यादिशब्दानां साधुत्वं ज्ञातुमर्हति ॥६॥ तथा वेदेतिहासादिज्ञानातिशयवानपि । न स्वर्गदेवता 4ऽपूर्वप्रत्यक्षीकरणे क्षमः ॥७॥ दशहस्तान्तरं व्योम्नि यो नामोत्प्लुत्य गच्छति । न योजनमसौ गन्तु शक्तोभ्याशतैरपि ॥८॥ इति [ अतीन्द्रियज्ञानमपि असंभाव्यमेव ] न दृष्टप्रत्यक्षादिविजातीया तीन्द्रियप्रत्यक्षादिसंभावना यतः संभाव्यत्यभिचारिता10 जिसका एक शास्त्र के विचार में महान अतिशयशाली ज्ञान देखा जाता है वह मनुष्य एक शास्त्र के ज्ञान मात्र से ही दूसरे शास्त्रों का ज्ञान प्राप्त नहीं कर सकता है ॥४।। ___व्याकरण शास्त्र को जान करके ज्ञान शब्द और अपशब्द में दूर तक वृद्धिंगत हो जाता है अर्थात् यह शब्द व्याकरण से शुद्ध है यह अशुद्ध है इत्यादि जान लेता है किन्तु वही ज्ञान नक्षत्र तिथि आदि के निर्णय में प्रस्फुट नहीं हो सकता है ॥५॥ __ उसी प्रकार से चंद्रग्रहण, सूर्यग्रहण आदिकों में विशेष प्रकृष्ट भी ज्योतिर्ज्ञानी मनुष्य "भवति गच्छति" आदि शब्दों को व्युत्पत्ति आदि के द्वारा अच्छी तरह से नहीं जान सकता है ॥६॥ उसी प्रकार से वेद इतिहास आदि ज्ञान के अतिशय वाला भी मनुष्य स्वर्ग, देवता, अपूर्वपुण्य पाप आदि को प्रत्यक्ष देखने में समर्थ नहीं हो सकता है ॥७॥ __ जो आकाश में दस हस्त प्रमाण उछल कर जा सकता है वह सैकड़ों अभ्यास के द्वारा भी योजन पर्यंत जाने में समर्थ नहीं हो सकता है ॥८॥ [ अतींद्रिय ज्ञान भी असंभव ही है ] ___ इस प्रकार से कहा गया है, इसलिये देखे गये प्रत्यक्षादि प्रमाण से विजातीय अतींद्रिय प्रत्यक्षादि की संभावना करना शक्य नहीं है कि जिससे "प्रत्यक्षादिप्रमाणत्वात्" यह हेतु साध्य के साथ व्यभिचारी हो सके अर्थात् नहीं हो सकता है। 1 एकशास्त्रज्ञानमात्रेण । 2 सिद्धि निष्पत्तिमिति यावत् । (ब्या० प्र०) 3 पुरातननृपादिचरित्रग्रन्थसन्दर्भ इतिहासः । 4 अपूर्व पुण्यपापे। 5 अथश्रुतज्ञानमनुमानज्ञानंवाऽभ्यस्यमानमभ्यासंसात्मीभावे तदर्थसाक्षात्कारितया परां दशामासादयतीति सौगतमतमपाकर्तुकामः क्वचिदभ्याससहस्रेणापि ज्ञानस्य विषयपरिच्छित्तौ विषयांतरपरिच्छित्तेरनुपपत्तिरिति दाष्टातिक मनसिकृत्य तत्र दृष्टांतमाह । श्रुतज्ञानं-परार्थानुमानरूपश्रुतमयिभावना। अनुमान-स्वार्थानुमानरूप. चिंतामयिभावना । साक्षात्कारितया–प्रत्यक्षीकरणतया इत्यर्थः। (ब्या० प्र०) 6 यसः । (ब्या० प्र०) 7 ता। (ब्या० प्र०) 8 द्वन्द्वः । 9 अतींद्रियप्रत्यक्ष । ता। (ब्या० प्र०) 10 संभाव्येनातीन्द्रिय (नेन्द्रिये) प्रत्यक्षादिना व्यभिचारः। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001548
Book TitleAshtsahastri Part 1
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year1889
Total Pages528
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size12 MB
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