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________________ अष्टसहस्री २५४ ] [ कारिका ३असर्वज्ञप्रणीतात्तु वचनान्मूलवजितात् । सर्वज्ञमवगच्छन्त:1 स्ववाक्यात्कि न जानते ॥६॥" इति । नोपमानमपि सर्वज्ञस्य साधकं, 'तत्सदृशस्य जगति कस्यचिदप्यभावात् । तथोक्त, सर्वज्ञ सदृशं कञ्चिद्यदि पश्येम सम्प्रति । उपमानेन सर्वज्ञं जानीयाम ततो वयम्" । इति । नार्थापत्तिरपि सर्वज्ञस्य साधिका, “तदुत्थापकस्यार्थस्यान्यथानुपपद्यमानस्याभावात् । धर्माद्युपदेशस्य 'बहुजनपरिगृहीतस्यान्यथाभावात् । तथा चोक्तम्--- "उपदेशो हि बुद्धादेर्धर्माधर्मादिगोचरः। 'अन्यथाप्युपपद्येत सर्वज्ञो यदि नाभवत् ॥१॥ बुद्धादयो ह्यवेदज्ञास्तेषां वेदादसम्भवः। उपदेश: 1°कृतोतस्तैामोहादेव केवलात् ॥२॥ सर्वज्ञ का अस्तित्त्व सिद्ध होगा पुनः प्रसिद्ध मूलांतर के बिना-प्रमाणता के बिना वे उभय भी कैसे सिद्ध हो सकेंगे ? ॥५॥ एवं प्रमाण वजित-असर्वज्ञ प्रणीत आगम से सर्वज्ञ को स्वीकार करते हुये आपको अपने वाक्यों से ही सर्वज्ञ की सिद्धि क्यों नहीं हो जाती है ।।६।। तथा उपमान प्रमाण भी सर्वज्ञ की सिद्धि करने वाला नहीं है क्योंकि सर्वज्ञ के सदृश कोई भी जगत में नहीं है जिसकी उपमा सर्वज्ञ को दे सकें। कहा भी है कि श्लोकार्थ-यदि सर्वज्ञ के सदृश किसी को इस समय हम देखें तब तो उपमान प्रमाण के द्वारा हम उसको जान सकें। अर्थापत्ति भी सर्वज्ञ को सिद्ध करने वाली नहीं है क्योंकि उस अर्थापत्ति को उत्पन्न करने वाले पदार्थ में अन्यथानुपपद्यमान का अभाव है। बहुजनपरिगृहीत धर्मादि का उपदेश अन्यथा भी हो सकता है अर्थात् सर्वज्ञ के अभाव में भी धर्म अधर्म आदि का उपदेश संभव है क्योंकि वह बहुत जनों के द्वारा परिगृहीत है इसलिये धर्मादि का उपदेश सर्वज्ञ के साथ अविनाभाव रूप नहीं है कि जिससे वह सर्वज्ञ को सिद्ध कर सके ? कहा भी है श्लोकार्थ-बुद्ध, कपिल आदि का उपदेश धर्म-अधर्म आदि को विषय करने वाला है क्योंकि यदि सर्वज्ञ न होवे तो अन्यथा-सर्वज्ञ के अभाव में भी वह हो सकता है ॥१॥ बुद्धादि वेद के जानने वाले नहीं हैं अतः उनका उपदेश वेद से असंभव है फिर भी उन लोगों ने जो उपदेश दिया है वह केवल व्यामोह से ही किया है ॥२॥ 1 अवगच्छंतीति पा० । (ब्या० प्र०) 2 सर्वज्ञसदृशस्य। 3 सादृश्यात् । (ब्या० प्र०) 4 अर्थापत्त्युत्थापकस्य । 5 सर्वज्ञाभावेपि धर्माद्युपदेशः संभवति बहुजनपरिगृहीतत्वात् । ततो धर्माद्युपदेशो नान्यथानुपपद्यमानो यतः सर्वज्ञ साधयेत् । 6 अन्यथापि भावात् इति पा० । (ब्या० प्र०) 7 सर्वज्ञाभावे। 8 अन्यथा नोपपद्यत इति पाठान्तरम् । यद्येवं पाठस्तदा काकूरूपेण ध्येयः। 9 बसः । (ब्या० प्र०) 10 वेदादसंभवो यतः । (ब्या० प्र०) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001548
Book TitleAshtsahastri Part 1
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year1889
Total Pages528
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size12 MB
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