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________________ मीमांसक द्वारा सर्वज्ञ का अभाव ] प्रथम परिच्छेद [ २५३ संभवात् । पूर्व' 'कुतश्चिदप्रसिद्धस्य तैरनुवादायोगात् । अनादेरागमस्यादिमत्सर्वज्ञप्रतिपादनविरोधाच्च । नाप्यनित्यस्तत्प्रणीत एवागमस्तस्य प्रकाशको युक्तः, परस्पराश्रयप्रसङ्गात् । नरान्तरप्रणीतस्तु न प्रमाणभूतः सिद्धो यतः सर्वज्ञप्रतिपत्तिः स्यात् । असर्वज्ञप्रणीताच्च वचनान्मूल वर्जितात् सर्वज्ञप्रतिपत्तौ स्ववचनात्किन तत्प्रतिपत्तिरविशेषात् । तदुक्तंन चागमविधिः कश्चिन्नित्यः सर्वज्ञबोधनः । न च मन्त्रार्थवादाना' तात्पर्यमवकल्प्यते ॥१॥ न चान्यार्थप्रधानैस्तैस्तदस्तित्वं विधीयते। न चानुवदितुं शक्यः पूर्वमन्यैरबोधितः ॥२॥ अनादेरागमस्यार्थो न च सर्वज्ञ आदिमान् । कृत्रिमेण त्वसत्मेन10 स कथ प्रतिपाद्यते ॥३॥ अथ 11तद्वचनेनैव सर्वज्ञोऽज्ञैः12 प्रतीयते । प्रकल्प्येत कथं सिद्धिरन्योन्याश्रययोस्तयोः ॥४॥ 13सर्वज्ञोक्ततया वाक्यं सत्यं तेन14 तदस्तिता। कथं तदुभयं सिद्धयेत् 1 सिद्धमूलान्तरादृते ॥५॥ का प्रणीत आगम प्रमाणभूत सिद्ध नहीं है कि जिससे सर्वज्ञ का ज्ञान हो सके । मूल से रहित-प्रमाणता से रहित असर्वज्ञ के द्वारा प्रणीत आगम से सर्वज्ञ का ज्ञान मानने पर तो अपने वचनों से ही उस सर्वज्ञ का ज्ञान क्यों न मान लीजिये क्योंकि दोनों ही मान्यताओं में कोई अंतर नहीं है। कहा भी है श्लोकार्थ-कोई नित्य आगम सर्वज्ञ का ज्ञान कराने वाला नहीं है और मंत्रार्थवाद-स्तुतिकथनादिवाद, तात्पर्य-वास्तविक भी नहीं माना जा सकता है ॥१॥ अन्यार्थ प्रधान वचनों से-स्तुति आदि परक अथवा क्रियाकांड प्रधान वचनों से सर्वज्ञ का अस्तित्त्व नहीं कहा जा सकता है एवं पूर्व में अन्य प्रमाणों से नहीं जाने गये सर्वज्ञ का अनुवाद-कथन करना भी शक्य नहीं है ।।२।। अनादि आगम भी आदिमान् सर्वज्ञ को नहीं कह सकता है एवं आदिमान्-कृत्रिम आगम असत्य है अतः उस असत्य से सर्वज्ञ कैसे कहा जावेगा ? ॥३॥ यदि आप कहें कि सर्वज्ञ के वचनों से ही अल्पज्ञजन सर्वज्ञ को जान लेते हैं तो यह कथन भी कैसे बनेगा क्योंकि अन्योन्याश्रय दोष आता है ॥४॥ सर्वज्ञ के द्वारा कहा गया होने से वचन (आगम) सत्य सिद्ध होगा और उस आगम से उस 1 आगमेन सर्वज्ञ स्यानुवादो भवतीत्युक्ते आह । 2 प्रमाणात् । 3 आदिमत्सर्वज्ञं प्रतिपादयति यदा तदा सर्वज्ञोऽभविष्यति भवतीति त्रिरूपेणापि प्रतिपादने विरोधः। 4 मूलं प्रामाण्यम् । 5 सर्वज्ञबोधकः इति पा० । (ब्या० प्र०) 6 अग्निष्टोमेन यजेत स्वर्गकाम इति मंत्रवाक्यं । स सर्ववित् स लोकविदिति अर्थवादः। (ब्या० प्र०) 7 स्तुत्यादि (चोदनादि) वादानां सत्यत्वं नावगम्यते । विशेषेण स्पष्टीकरणं त्वस्य भावनाविवेकनाम्नि ग्रन्थे कृतम् । 8 न वाक्यार्थप्रधानस्तस्तदस्तीति वा पाठः। 9 प्रमाणैः। 10 कृत्रिमत्वादेवासत्यत्वम् । 11 सर्वज्ञवचनेन । 12 सर्वज्ञोऽन्यः इति पा० । जनैः । (ब्या० प्र०) 13 अन्योन्याश्रयं भावयति। 14 वाक्येन । 15 सिद्धं च तन्मलान्तरं (प्रमाणान्तरं) च तत्तस्मात् । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001548
Book TitleAshtsahastri Part 1
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year1889
Total Pages528
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size12 MB
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