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________________ तत्त्वोपप्लववाद ] प्रथम परिच्छेद [ २१५ [ सौगत: अविसंवादित्वेन ज्ञानस्य प्रमाणतां मन्यते तस्य निराकरणं ] 'नाप्यविसंवादित्वेन, तदविसंवादस्यार्थक्रियास्थिति लक्षणस्यानवगतस्य' प्रामाण्यव्यवस्था-हेतुत्वायोगात् । तस्यावगतस्य तद्धेतुत्वे 'कुतस्तदवगमस्य प्रामाण्यम् ? संवादान्तरा अर्थ-नहीं जानी गई है प्रमाणता जिसकी ऐसे ज्ञान से यदि प्रवृत्ति होना माना जावे तो सर्वत्र प्रमाणता का निश्चय होना व्यर्थ है जैसे कि बालक का मुंडन कराकर फिर नक्षत्र पूछना व्यर्थ है । यदि नैयायिक कहे कि संशय ज्ञानों से भी प्रवृत्ति देखी जाती है तो यह कथन ठीक नहीं है क्योंकि यदि संशयज्ञान से ही प्रवृत्ति होने लगे तो प्रमाण ज्ञान को कौन खोजेगा? अतः जैसे अनर्थ के संशय (संभावना) से भी विद्वानों की अनुचित कार्यों से निवृत्ति हो जाती है वैसे ही इष्ट अर्थ के संशय से पदार्थों में प्रवृत्ति हो जानी चाहिए किन्तु ऐसा तो है नहीं । प्रेक्षापूर्वकारी-समझदार पुरुष संशय से प्रवृत्ति नहीं करते हैं। और तो क्या घास खोदने वाला मनुष्य भी विचार कर अपने इष्ट कार्य में प्रवृत्ति करता है। अतः संशय आदि ज्ञान प्रवृत्ति को कराने वाले नहीं हैं, किन्तु नैयायिक की ऐसी विचारधारा है कि परलोकार्थ नित्य नैमित्तिककर्म, दीक्षा, तपश्चर्या आदि क्रियाओं के अनुष्ठान करने में निश्चित प्रमाणता वाले ज्ञान से प्रवृत्ति होती है और महायात्रा, संघ चलाना, विवाह, प्रतिष्ठादि कार्यों में अनिश्चित प्रमाणता वाले संदेह ज्ञान से प्रवृत्ति होती है। यद्यपि लौकिक और पारलौकिक दोनों ही कार्यों में क्लेश की बहुलता और धन का खर्च समान है तो भी प्रामाणिक ज्ञान और अप्रमाणीक ज्ञान की अपेक्षा अन्तर है । नैयायिक की इस मान्यता में भी आचार्यों ने यही समझाया है कि परलोकार्थ निश्चित प्रमाणता वाले ज्ञान से प्रवृत्ति मानने में तो अन्योन्याश्रय दोष आता है और अनिश्चित प्रमाणता वाले ज्ञान से लौकिक कार्यों में प्रवृत्ति हो जाने पर तो ज्ञानों में प्रमाणता का ढूंढना ही व्यर्थ हो जाता है। संसार में जीव दो प्रकार के होते हैं। विचार कर प्रवृत्ति करने वाले पुरुष प्रेक्षावान्-बुद्धिमान् कहलाते हैं और बिना विचारे प्रवृत्ति करने वाले पुरुष अप्रेक्षावान्- मूर्ख कहलाते हैं । इसलिए प्रमाणीक सच्चे ज्ञान की अपेक्षा, संशय, विपर्यय और अनध्यवसाय ज्ञानों में अंतर है ये ज्ञान मिथ्या कहलाते हैं इसका विशेष विवरण श्लोकवार्तिक से देखना चाहिये। नैयायिक और मीमांसक के प्रमाणतत्त्व का विचार करके अब तत्त्वोपप्लववादी सौगत के प्रमाण तत्त्व का विचार करता है। [सौगत अविसंवादित्व होने से ज्ञान की प्रमाणता मानता है उसका खंडन ] प्रारंभ में प्रमाणतत्त्व की विचारणा में चार प्रश्नों में अंतिम प्रश्न है कि क्या अन्यथा-अवि 1 मीमांसकनैयायिकयोर्मतस्य प्रमाणतत्त्वं विचार्येदानीं सौगतप्रमाणतत्त्वं विचारयन्ति ग्रन्थकृतः। 2 यसः (कर्मधारयः) 3 भर्थक्रियासद्भावलक्षणस्य। 4 प्रमाणस्वरूपेण । (ब्या०प्र०) 5 अविसंवादावगमस्य। (ब्या० प्र०) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001548
Book TitleAshtsahastri Part 1
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year1889
Total Pages528
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size12 MB
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