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________________ २१४ ] अष्टसहस्री [ कारिका ३ हो सकती हैं मतलब वहाँ जल न होकर चमकता हुआ बालू का ढेर है अतः वह ज्ञान झूठा सिद्ध है। इस प्रकार से यह नैयायिक प्रमाण को प्रमाणता को सर्वथा पर से ही मानता है। इस विषय में जैनाचार्यों का तो इतना ही अभिप्राय है कि अभ्यस्त दशा में जलादि पदार्थों के ज्ञान की प्रमाणता स्वतः होती है और अनभ्यस्त दशा में पर से होती है। यहाँ पर जैनाचार्यों ने तत्त्वोपप्लववादी के मुख से नैयायिक की मान्यता का खंडन कराया है। पहले प्रश्न यह हुआ है कि यह प्रवृत्ति की सामर्थ्य है क्या ? जल के ज्ञान में स्नान पानादि रूप फल से संबंधित होना या जल ज्ञान में सजातीय ज्ञान का होना ? यदि स्नानादि रूप फल से संबंध होने को प्रवृत्ति की सामर्थ्य कहो तब तो वह जल ज्ञान से फल का सम्बन्ध जाना गया है या नहीं ? यदि अज्ञात कहो तो प्रवृत्ति होना असंभव है । यदि कहो कि फल से सम्बन्धित प्रवृत्ति की सामर्थ्य ज्ञात रूप होकर ज्ञान की प्रमाणता में हेतु है तब तो वह प्रवृत्ति की सामर्थ्य किस ज्ञान से जानी गई है ? उसी ज्ञान से कहो तो अन्योन्याश्रय आयेगा और अन्य ज्ञान कहो तो अनवस्था। यदि सजातीय ज्ञान का उत्पन्न होना प्रवृत्ति की सामर्थ्य है अर्थात् जलज्ञान की दृढ़ता को बतलाने के लिये जलज्ञान के समान दूसरे विज्ञान को उत्पत्ति हो जाना सामर्थ्य है तब तो इसमें भी अनवस्था दोष आ जाता है क्योंकि सजातीयज्ञान रूप प्रवृत्ति सामर्थ्य की प्रमाणता अन्य सजातीय ज्ञान से होगी, पुनः उसकी प्रमाणता अन्य से, क्योंकि जब तक प्रवृत्ति सामर्थ्य के विज्ञान में प्रमाणता का निर्णय न होगा तब तक उस प्रवृत्ति की सामर्थ्य से प्रथम ज्ञान की प्रमाणता भी सिद्ध नहीं होगी और अन्य ज्ञानों से प्रवृत्ति सामर्थ्य के ज्ञान में प्रमाणता मानने पर अनवस्था तैयार खड़ी है। पुनरपि यह प्रश्न होता है कि प्रवृत्ति शब्द का क्या अर्थ है ? तब नैयायिक ने कहा कि मनष्य जानने योग्य-जल के स्थान को प्राप्त कर लेवे इसका नाम प्रवत्ति है. तब यह भी प्रश्न उठता है कि मनुष्य उस प्रमेय (जलाशय स्थानादि) को जानकर वहाँ जाता है या बिना जाने ? यदि बिना जाने कहो तब तो सभी के लिये सभी स्थान को प्राप्त करना प्रवृत्ति हो जावेगी। यदि जानकर कहो तो भी उस मनुष्य ने प्रामाणिक ज्ञान से उस प्रवृत्ति के प्रमेय-जल को जाना है या अप्रमाणीक ज्ञान से ? प्रथम पक्ष में अन्योन्याश्रय है। पहले ज्ञान को प्रमाणता सिद्ध हो तब उससे जल का ज्ञान होगा और जल का ज्ञान हो जाने पर प्रवृत्ति की सामर्थ्य से उस ज्ञान की प्रमाणता होगी और अन्य ज्ञान से प्रवृत्ति के ज्ञान की प्रमाणता मानने पर तो अनवस्था आ ही जाती है और अप्रमाणीक ज्ञान से जलादि प्रमेय ज्ञान में प्रवृत्ति मानने पर तो ज्ञान को प्रमाणीक सिद्ध करना व्यर्थ ही है, तब नैयायिक ने यह बात भी मंजूर कर ली है उसने कहा कि हम संशयज्ञान से भी प्रवृत्ति मानते हैं। केवल प्रमाण प्रमेय रूप लोक व्यवहार बताने के लिये प्रमाणता का विचार करते हैं। इसी बात को श्लोकवार्तिक में भी कहा है यथा "अविज्ञातप्रमाणत्वात् प्रवृत्तिश्चेद् वृथा भवेत् । प्रामाण्यवेदनं वृत्ते क्षौरे नक्षत्रपृष्टिवत् ।।१२०॥ अर्थसंशयतो वृत्तिरनेनैव निवारिता । अनर्थसंशयाद्वापि निवृत्तिर्विदुषामिव ।।१२१॥" Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org ..
SR No.001548
Book TitleAshtsahastri Part 1
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year1889
Total Pages528
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size12 MB
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