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अष्टसहस्री
[ कारिका ३त्वनिश्चयात् तस्मिंश्च सति 'तेन तदवगमात् । अन्यतः प्रमाणात्सोवगत इति चेत्तदन्यत्प्रमाणं कुत; प्रामाण्यव्यवस्थामास्तिघ्नुते ? प्रवृत्तिसामर्थ्यादिति चेत् तदपि प्रवृत्तिसामर्थ्य यदि फलेनाभिसम्बन्धस्तदावगतोऽनवगतो वा संविदः प्रामाण्यं गमयेदित्यादि पुनरावर्त्तत इति 'चक्रकप्रसङ्गः । एतेन सजातीयज्ञानोत्पत्तिः प्रवृत्तिसामर्थ्य संवित्प्रामाण्यस्यागमकं प्रतिपादितं, सजातीयज्ञानस्य प्रथमज्ञानात्प्रामाण्यनिश्चये परस्पराश्रयणस्याविशेषात्, प्रमाणान्तरात्तत्प्रमाण्यनिर्णयेनवस्थानुषङ्गात् ।
है या अनवगत-नहीं जानी गई को? अनवगत (अज्ञात) तो आप कह नहीं सकते अन्यथा अतिप्रसंग आ जावेगा अर्थात् पर्वतादि पर धूम को नहीं देखकर भी अग्नि का निश्चय हो जावेगा।
यदि कहो कि जो फल से अभिसंबंधित-जाना हआ होकर ज्ञान की प्रमाणता सिद्ध करता है तो वह उसी प्रमाण से अवगत-ज्ञात है या अन्य प्रमाण से ? उसी से ज्ञात तो आप कह अन्यथा परस्पराश्रय दोष आ जावेगा। फल से अभिसंबंध का ज्ञान हो जाने पर उस ज्ञान की प्रमाणता का निश्चय होगा और उसमें प्रमाणता का निश्चय होने से उस ज्ञान से फल के अभिसंबंध
श्चय होगा। दूसरा पक्ष लेवो कि अन्य प्रमाण से वह जाना गया है तो वह अन्य प्रमाण भी किस प्रमाण से प्रमाणता को प्राप्त करता है ? यदि आप कहें कि प्रवृत्ति की सामर्थ्य से, तो पुनः वह प्रवृत्ति की सामर्थ्य भी यदि फल से अभिसंबंधित है तो वह अवगत होकर ज्ञान की प्रमाणता को कराती है या अनवगत-अज्ञात रहकर ? इत्यादि रूप से पुनः-पुनः उन प्रश्नों की आवृत्ति होने से चक्रक दोष का प्रसंग आता है।
दो बार की आवृत्ति को परस्पराश्रय दोष एवं तीन बार की आवृत्ति को चक्रक दोष कहते हैं ।
इसी उक्त कथन से "सजातीय ज्ञान की उत्पत्ति रूप प्रवृत्ति की सामर्थ्य ज्ञान की प्रमाणता को बतलाती है" इस कथन का भी निराकरण कर दिया है क्योंकि सजातीय ज्ञान में प्रथम ज्ञान से प्रमाणता का निश्चय मानने पर परस्पराश्रयदोष समान ही है। तथा उस सजातीय ज्ञान की प्रमाणान्तर-अन्य ज्ञान से प्रमाणता का निश्चय करने पर अनवस्था का
1 विज्ञानेन । 2 फलेनाभिसम्बन्धस्यावगमात् । 3 चेत्तदा तदन्यत्प्रमाणं इति पा०। (ब्या० प्र०) 4 प्राप्नोति । 5 चेत्तत्प्रवत्ति इति पा०। (ब्या० प्र०) 6 चक्रकं विवृणोति । तदपि प्रवत्तिसामर्थ्य यदि फलेनाभिसम्बन्धस्तदा सोवगतोनवगतो वा संविद: प्रामाण्यं गमयेत् ? यद्यनवगतस्तदातिप्रसङ्गः। सोवगतश्चेत्तत एवं प्रमाणादन्यतो वा ? न तावत्तत एवं परस्पराश्रयानुषङ्गात् । अन्यतः प्रमाणात्सोवगत इति चेत्तदन्यत्प्रमाणं कुतः प्रामाण्यव्यवस्थामास्तिध्नुते ? प्रवृत्तिसामादिति चेत्तदपि प्रवृत्तिसामर्थ्य यदि फलेनाभिसम्बन्धस्तदावगतोनवगतो वेत्यादिप्रकारेण वारत्रयमावर्त्तने चक्रकं दूषणं भवति । 7 फलाभिसम्बन्धलक्षणप्रवृत्तिसामर्थ्य निराकरणपरेण ग्रंथेन । (ब्या० प्र०) 8 प्रवृत्तिः सामर्थ्यस्य फलेनाभिसम्बन्धस्य निराकरणद्वारेण । 9 तत्र सजातीयज्ञाने ।
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