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तत्त्वोपप्लववाद प्रथम परिच्छेद
[ २०६ [ तृतीयेन प्रवृत्तिसामर्थ्यहेतुना ज्ञानस्य प्रमाणत्वनिराकरणं ] 'नापि प्रवृत्तिसामर्थ्यन, अनवस्थाप्रसक्तेः । 'प्रवृत्तिसामर्थ्य हि. “फलेनाभिसम्बन्धः 'सजातीयज्ञानोत्पत्तिर्वा ? 'यदि फलेनाभिसम्बन्धः सोवगतोनवगतो वा संविदः प्रामाण्यं गमयेत् ? न तावदनवगतः, अतिप्रसङ्गात् । सोवगतश्चेत् 'तत एव प्रमाणादन्यतो वा ? न तावत्तत एव, परस्पराश्रयानुषङ्गात्। सति फलेनाभिसम्बन्धस्यावगमे1 12तस्य प्रमाणा
नहीं दिखी तो क्या वह ज्ञान प्रमाण हो गया ? अथवा सर्वत्र भ्रमणशील मनुष्य ने या बहुत से जनों ने सीप को चाँदी माना और सच्चानिर्णय नहीं कर सके, कुछ दिन बाधा नहीं आई, तो क्या वह ज्ञान प्रमाण हो गया ?
पुनरपि प्रश्न होता है कि एक व्यक्ति को किसी ज्ञान में बाधा नहीं आई, तो क्या इतने मात्र से वह ज्ञान प्रमाण हो गया या सभी को उसमें बाधा नहीं आई ?
यदि एक व्यक्ति के संबंध में बात है तो वही सीप में चाँदी के विपर्यय ज्ञान में उसे बाधा नहीं दिखी तो क्या वह ज्ञान प्रमाण है ? यदि सभी को बाधा नहीं है ऐसा कहो तब तो आप मीमांसक पहले सर्वज्ञ बनो, सारे विश्व में सभी को देखो, फिर निर्णय दो। यदि आपको यह बात स्वीकार नहीं है तब तो आप अल्पज्ञ "सभी को इस ज्ञान में बाधा नहीं है" ऐसा निर्णय कैसे करोगे? इस प्रकार से "बाधा की उत्पत्ति न होने से" ज्ञान में प्रमाणता आती है यह बात प्रमाण की कोटि में नहीं उतरती है इस प्रकार से तत्त्वोपप्लववादी के मुख से जैनाचार्यों ने मीमांसक का खंडन कराया है।
____ अब जैनाचार्य इस बात का निश्चय कराते हैं कि जहाँ पर "स्वार्थ निश्चायक ज्ञान" है वहाँ पर कोई भी बाधा नहीं आती है, वही ज्ञान प्रमाण है और जहाँ स्वार्थव्यवसायात्मक ज्ञान का लक्षण नहीं है वहाँ पर बाधायें नहीं होते हुए भी ज्ञान प्रमाण नहीं है अप्रमाण ही है। इसलिये ज्ञान की प्रमाणता को बाधानुत्पत्ति से मानना ठीक नहीं है ।
[ नैयायिक प्रवृत्ति की सामर्थ्य से ज्ञान की प्रमाणता मानते हैं उनका खंडन ] __ यदि आप नैयायिक तीसरा पक्ष मान्य करें कि प्रवृत्ति की सामर्थ्य से प्रमाण में प्रमाणता है सो यह कथन भी ठीक नहीं है, क्योंकि अनवस्था का प्रसंग आता है। अच्छा आप यह तो बताइये कि वह प्रवृत्ति की सामर्थ्य है क्या ? फल (स्नानपानादि रूप) से अभिसंबंध होना या पुरुष को सजातीय ज्ञान की उत्पत्ति का होना ?
यदि फल से अभिसंबंध कहो तो वह अवगत-जानी गई होकर ज्ञान की प्रमाणता को बतलाती 1 प्रवृत्तिसामर्थ्येन प्रमाणस्य प्रामाण्यमिति नैयायिको ब्रूते । तं प्रत्याह तत्त्वोपप्लववादी। 2 चक्रकप्रसङ्गदूषणं तदप्यनवस्था। 3 तत्त्वोपप्लववादी काणादं प्रति पृच्छति। 4 सामर्थ्य पूनरस्याः फलेनाभिसम्बन्ध इति पक्षिलभाष्यात्। 5 स्नानपानादिना। 6 पुंसः। 7 तत्त्वोपप्लववादी। 8 पर्वतादौ धूमापरिज्ञानेप्यग्निनिश्चयप्रसङ्गात् । 9 विवक्षितात् । (ब्या० प्र.) 10 श्रयणानुषंगात् इति पा० । (ब्या० प्र०) 11 प्रकृतज्ञाने। (ब्या० प्र०) 12 विज्ञानस्य ।
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