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________________ वेद की अप्रमाणता ] प्रथम परिच्छेद [ अत्रपर्यतं जैनाचार्यविनावादो निराकृतोऽधुना वेदस्यापौरुषेयत्वं निराक्रियते ] इति श्रुति सम्प्रदायावलम्बिना मतेऽत एव' न कश्चित्सर्वज्ञ 'इत्ययुक्तं, श्रुतेरविशेषादप्रमाणतापत्तेः। इति सूक्तं यथैव हि सुगतादयः परस्परविरुद्धक्षणिकनित्यायेकान्तसमयाभिधायिनः सर्वे न सर्वदशिन इति न कश्चित्सर्वज्ञस्तथा श्रुतयोपि 'परस्परविरुद्धकार्यार्थ स्वरूपा द्यर्थाभिधायिन्यः सर्वा न प्रमाणभूताः'। 1"इति न काचिदपि श्रुतिः प्रमाणं स्यात् । न हि कार्येर्थे श्रुतिरपौरुषेयो, न पुन: स्वरूपे, येनापौरुषेयत्वात्तदन्यतर13श्रुतिजनितमेव ज्ञानं प्रमाणं दोषजितैः 14कारणैर्जनितत्वादुपपद्येत । 1बाध जितत्वं तु 18नकत्राप्यस्ति हिंसाद्यभिधायिनः "श्वेतमजमालभेत भूतिकाम:20'' इत्यादे:22 “सधनं [ जैनाचार्य वेद को अपौरुषेय एवं प्रमाण मानने का खण्डन करते हैं ] मीमांसक-इस प्रकार से श्रुति-वेद संप्रदाय का अवलंबन लेने वालों के मत-सिद्धांतों में इसीलिए सर्वज्ञ नहीं है अर्थात् तीर्थकरत्व लक्षण हेतु सुगत आदिकों में चला जाने से अनेकांतिक है इस कारण ही कोई सर्वज्ञ नहीं है । जैन--यह आप मीमांसक का कथन सर्वथा ही अयुक्त है क्योंकि वेद भी परस्पर विरुद्ध अर्थ को कहने वाले होने से अप्रमाण ही हैं ।* इसलिए बिल्कुल ठीक ही कहा है कि "जिस प्रकार से सुगत आदि परस्पर विरुद्ध क्षणिक, नित्यादि एकांत समय-मत को कहने वाले हैं अत: वे सभी सर्वदर्शी -सर्वज्ञ नहीं है इसलिए कोई सर्वज्ञ नहीं है। उसी प्रकार से वद भी परस्पर विरुद्ध कार्य स्वरूप-नियोग, विधि आदि अर्थ को कहने वाले होने से वे भी सभी प्रमाणभूत नहीं हैं।" इसलिए कोई भी वेद प्रमाणीक नहीं हैं। उसी का और भी स्पष्टीकरण करते हैं । 'कार्य अर्थ में श्रुति अपौरुषेय है, किन्तु ब्रह्म स्वरूप में नहीं है' ऐसा भी आप नहीं कह सकते कि जिससे "अपौरुषेय होने से" इस हेतु से किसी एक वेद से उत्पन्न हुआ ज्ञान ही दोषों से रहित कारणों से अपौरुषेय वेदवाक्यों से उत्पन्न होने से प्रमाण हो सके, अर्थात् नहीं हो सकता है। हिंसादि का कथन करने वाले वेदवाक्यों में से किसी एक वेदवाक्य में भी "बाधा से रहितपना रूप हेतु" नहीं है। "श्वेतमजमालभेत भूतिकामः' विभूति की इच्छा करता हुआ मनुष्य श्वेत बकरे को मारे "इत्यादि 1 इतः कारिकार्थमाहुराचार्याः । 2 वेद । (ब्या० प्र०) 3 तीर्थकरत्वलक्षणस्य साधनस्य सुगतादिभिरनैकांतिकत्वं यतः । (ब्या० प्र०) 4 मीमांसकेनोक्तम् । 5 परस्परविरुद्धार्थाभिधायित्वेन । 6 सूक्तं भावयति। 7 परस्परविरुद्धकार्यस्वरूपाद्यर्था-इति पा० । (ब्या० प्र०) 8 स्वरूपो नियोगः। 9 आदिना विध्यादिग्रहः। 10 हेतोः । 11 अपौरुषेयवाक्यः । 12 ब्रह्मस्वरूपे। 13 प्रतिपादक । (ब्या० प्र०) 14 अपौरुषेयवाक्यः। (ब्या० प्र०) 15 तत्रापूर्वार्थविज्ञानं निश्चितं बाधवजितं । अदुष्टकारणारब्धं प्रमाणं लोकसम्मतं । (ब्या० प्र०) 16 तदेव दर्शयति । 17 श्रुतेः। 18 वचसि (कार्येर्थे स्वरूपे वा)। 19 हन्यात् । (ब्या० प्र०) 20 ऐश्वर्य । (ब्या० प्र०) 21 वाक्यस्य । 22 अपौरुषेयवाक्यस्य । (ब्या० प्र०) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001548
Book TitleAshtsahastri Part 1
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year1889
Total Pages528
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size12 MB
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