________________
प्रथम परिच्छेद
भावनावाद ]
[ १४६ 'सत्यमेतदिन्द्रिय बुद्धेविषयभावमनुभवन् प्रकाश्य एव शब्दो रूपादिवत् । प्रतिपादकस्तु स्वरूपे शाब्दी बुद्धिमुपजनयन्नभिधीयते इति 'चेन्न-तत्र वाच्यवाचकभावसम्बन्धाभावात् । तस्य द्विष्ठत्वेनैकवानवस्थितेः ।
[ शब्दात् शब्दव्यापारस्य भिन्ने मन्यमाने दोषानाह ] यदि पुनरर्थान्तरभूत एव शब्दात्तद्व्यापार इति मतं 'तदा स शब्देन प्रतिपाद्यमानो'
भाट्ट-आपका कहना सत्य है । श्रोत्रेन्द्रिय ज्ञान में विषय भाव का अनुभव करते हुए रूपादि के समान शब्द प्रकाश्य ही हैं। किन्तु वे शब्द स्वरूप में शाब्दिक ज्ञान को उत्पन्न करते हुए प्रतिपादक भी कहे जाते हैं।
जैन-ऐसा नहीं कहना । वहाँ पर तो वाच्य-वाचक भाव रूप सम्बन्ध का अभाव है। क्योंकि वाच्य वाचक भावरूप सम्बन्ध द्विष्ठ (दो में स्थित ) होने से वह एकत्र अनंश रूप शब्द में नहीं रह सकता है अर्थात् आपने शब्द को तो अंश रहित माना है पुनः उसमें वाच्य-वाचक रूप दो भाव कैसे बनेंगे।
भावार्थ-भाट्ट का कहना है कि शब्द अपने स्वरूप को श्रोत्रेन्द्रिय के ज्ञान में अर्पण कर देता है । अतः वह शब्द अपने शब्द भावना के स्वरूप का प्रतिपादक हो जाता है । इस पर आचार्य कहते हैं कि तब तो रूप, रस, गंध और स्पर्श भी अपने-अपने स्वरूपों के प्रतिपादक हो जावेंगे क्योंकि ये रूप रसादि भी अपनी-अपनी चक्षु, रसना, ध्राण और स्पर्शन इन्द्रियों के ज्ञान में अपने स्वरूप का समर्पण करते ही हैं अर्थात् ये रूपरसादि भी चा रसना आदि इन्द्रियों के विषय हैं जैसे कि शब्द श्रोत्रेन्द्रिय का विषय है । इस पर भाट्ट कहता है कि शब्द अपने वाच्य अर्थ के प्रतिपादक हैं इसलिये ये शब्द अपने स्वरूप के प्रतिपादक हैं। किन्तु रूप रसादि वैसे नहीं हैं वे तो चक्षु आदि इन्द्रियों के द्वारा प्रकाशित होने योग्य हैं और वे चक्षु आदि इन्द्रियां उन रूपादि से भिन्न प्रकाशक हैं। आचार्य कहते हैं कि आप भाट्टों का यह कहना अयुक्त ही है क्योंकि शब्द अपने वाच्य का प्रतिपादक रूप स्वयं ही प्रसिद्ध नहीं है । अन्यथा पर के द्वारा उपदेश देना, व्याख्यान करना, अर्थ का समझाना आदि व्यर्थ हो जावेंगे। क्योंकि "मेरा यह प्रतिपाद्य अर्थ है" ऐसा वे शब्द श्रोताओं को स्वयं तो कहते नहीं हैं । यदि शब्द स्वयं ही कह देगे तो मुर्ख, बालक आदि भी कठिन-कठिन शास्त्रों के अर्थों को स्वयं ही समझ जावेंगे । विद्यालयों में अध्यापकों की कोई भी आवश्यकता नहीं रहेगी। किन्तु ऐसा तो है नहीं।
1 भाट्टः। 2 श्रोत्रेन्द्रियस्य । 3 जैनः। 4 निरंशत्वात् । (ब्या० प्र०) 5 अनंशरूपे शब्दे। 6 द्वितीयपक्षे । 7 (जैन:) यथा च छेदकस्य कुठारस्य छेद्यस्य वक्षस्य तयोरन्तरालेऽवान्तरव्यापारेणोत्पतननिपतनेन भाव्यम् । 8 कर्त। (ब्या० प्र०) 9 यदि शब्दव्यापारः शब्देनोत्पाद्यमानस्तदा शब्देन पुरुषव्यापारो भाव्यते इति वचो विरुद्धयेत् । (ब्या० प्र०)
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org