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________________ भावनावाद ] प्रथम परिच्छेद [ १४७ सकलबाधकरहितत्वनिर्णयात् । सैव च 'वाक्यार्थो न पुननियोगोऽन्यापोहादिवत् । इति भट्टसम्प्रदाय एव संवादक: सिद्धः । कार्ये 'चार्थे चोदनायाः प्रामाण्यं तत एव न स्वरूपेतत्र बाधकसद्भावात् । सर्ववेदान्तवाद'निराकरणान्न भट्टस्य कश्चिदपि प्रतिघात इति कश्चित् । [ अप्रत्यात् जैनाचार्याः भाट्टस्य भावनावादमपि निराकुर्वति ] अत्र प्रतिविधीयते । यत्तावदुक्तं, शब्दव्यापारः शब्दभावनेति । तत्र शब्दात्तद्व्यापारोनर्थान्तरभूतोर्थान्तरभूतो वा स्यात् ? [ शब्दात् शब्दव्यापारस्याभिन्नपक्षे दोष प्रतिपादनं ] यद्यनर्थान्तरभूतस्तदा कथमभिधेयः? शब्दस्य स्वात्मवत् । न ह्येकस्यानंशस्य12 प्रतिपाद्यप्रतिपादकभावो युक्तः? संवेद्यसंवेदकभाववत् । 13स्वेष्ट14 विपर्यासेन तद्भावापत्तेः- प्रतिनियम"हेत्वभावात् । तद्भ दपरिकल्पनया प्रतिपाद्यप्रतिपादकभावे 1'तस्य 20सांवृत्तत्वप्रस यहाँ तक भावनावादी भाट्ट ने अन्य विधिवादी का खण्डन करके अपना पक्ष पुष्ट किया है। । जैनाचार्य भावनावादी भाद्र का खण्डन करते हैं ] जैन-जो आप भाटों ने कहा है कि "शब्द व्यापार ही शब्द भावना है" उसमें हम आपसे प्रश्न करते हैं कि शब्द का व्यापार शब्द से अभिन्न है या भिन्न ? [ शब्द से शब्द के व्यापार को अभिन्न मानने में दोष ] यदि अभिन्न है तो वाच्य कैसे होगा? जैसे कि शब्द का स्वरूप वाच्य नहीं है। क्योंकि एक अनंश-अंश कल्पना रहित में प्रतिपाद्य और प्रतिपादक भाव युक्त नहीं है, जैसे कि एक निरंश ज्ञान में संवेद्य और संवेदक भाव मानना युक्त नहीं है। यदि अनंश में भी प्रतिपाद्य-प्रतिपादक भाव मानोगे तव तो आपके इष्ट से विपरीत भी कहा जा सकेगा अर्थात् आपने शब्द को प्रतिपादक और उसके स्वरूप को प्रतिपाद्य माना है, उससे विपरीत शब्द को प्रतिपाद्य भी कह सकेंगे क्योंकि इस विषय में प्रतिनियत हेतु का अभाव है। यदि शब्द में अंश की कल्पना करके प्रतिपाद्य प्रतिपादक भाव मानोगे तो वह शब्द संवृत्ति रूप-कल्पित ही हो जावेगा। 1 स्फोटादि। 2 अन्वय । (ब्या० प्र०) 3 सत्यरूपः । 4 भावनालक्षणे । 5 लिङ्लोट्तव्यप्रत्यययुक्तस्य चोदनारूपस्य वाक्यस्य । (ब्या० प्र०) 6 विधौ। 7 विधिरूपे । (ब्या० प्र०) 8 भट्टमतानुसारी। 9 जैनेन। 10 हे भट्ट त्वया । 11 व्यापारः शब्दस्यार्थो न भवति-ततोनान्तरत्वात् तत्स्वात्मवत् । अत्राशङ्का-ननु शब्दस्य स्वात्मा शब्दाभिधेयो भवतु । को दोषः ? तथा सति सन्दिग्धान कान्तिकत्वं हेतोरित्युक्ते आह नहीति । 12 शब्दस्य ज्ञानापेक्षया निरंशस्य । 13 एकानंशस्य प्रतिपाद्यप्रतिपादकत्वं चेत् । 14 भट्टस्य स्वेष्टं शब्दस्य प्रतिपादकत्वस्वरूपस्य प्रति. पाद्यत्वमिति । तद्वैपरीत्येनशब्दस्य प्रतिपाद्यत्वेन। 15 कुतः। 16 एकानंशे नियमाभावात् । (ब्या० प्र०) 17 शब्दः प्रतिपादक: स्वरूपं प्रतिपाद्यमिति प्रतिनियमहेतोरभावात् । 18 शब्दस्य सांशत्वपरिकल्पनया। 19 शब्दस्य । 20 कल्पितत्व। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001548
Book TitleAshtsahastri Part 1
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year1889
Total Pages528
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size12 MB
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