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अष्टसहस्री
[ कारिका ३
भासमाने स्थाणुपुरुषविशेषयोः सन्देहानुपत्तिः — तयोरप्रतिभासनात् । 'तत्प्रतिभासनसामग्यभावादनुस्मरणे' सति सन्देहघटनात् । तद्वत्पचति यजतीत्यादिक्रियाविशेषाप्रतिभासने करोतीतिक्रियासामान्यस्य प्रतिनियत देशादिरूपस्य प्रतिभासने युक्तः सन्देहः किं करोतीति । ' तथा प्रश्ने च पचति यजते इत्यादि प्रतिवचनं न दुर्घटम् - ' कथञ्चित्पृष्टस्यैव प्रतिपादनात् । एवं यजनादिक्रियाविशेषाणां साधारणरूपा करोतीति क्रिया 'कथञ्चित्ततो व्यतिरेकेणोपलभ्यमाना "कर्तृ व्यापाररूपार्थभावना विभाव्यते" एवशब्दव्यापाररूपशब्दभावनावत्
ऊर्ध्वता सामान्य और विशेष में प्रतिनियत देश आदि के प्रतिभासमान होने पर अर्थात् स्थाणु पुरुषोचित देश में प्रकाश और अंधकार से कलुषित समय में उन सामान्य और विशेष दोनों के दिखने पर स्थाणु और पुरुष विशेष में संदेह नहीं होवे, ऐसा नहीं है क्योंकि वे दोनों प्रतिभासित नहीं होते हैं । अतः उस प्रतिभासन की सामग्री- देश की निकटता का अभाव होने से और अनुस्मरण के होने पर संदेह हो जाता है । उसी प्रकार से – “सामान्य के प्रत्यक्ष से तथा विशेष के अप्रत्यक्ष से और विशेष की स्मृति होने से संदेह होना युक्ति युक्त ही है" इस लक्षण के सिद्ध हो जाने से "पचति यजति" इत्यादि क्रिया विशेष के प्रतिभासित न होने पर " करोति" इस प्रकार की प्रतिनियत देशादि रूप क्रिया सामान्य के प्रतिभासित होने पर “ किं करोति" ऐसा संदेह होना युक्त ही है । एवं " किं करोति" ऐसे प्रश्न के होने पर "पचति यजते" इत्यादि प्रत्युत्तर दुर्घट नहीं हैं, क्योंकि कथंचित् पूछा गया पुरुष ही उत्तर देता है ।
इस प्रकार से यजनादि क्रिया विशेषों में साधारणरूप "करोति" यह क्रिया कथंचित् — शक्य विवेचन रूप से उन यजनादि क्रिया विशेषों से भिन्न ही उपलब्ध होती हुई " करोति" अर्थ लक्षण वाली कर्ता के व्यापार रूप है, एवं उस क्रिया को ही अर्थ भावना कहते हैं क्योंकि वह शब्द व्यापाररूप शब्दभावना के समान सकल बाधाओं से रहित है ऐसा निर्णय सिद्ध है ।
और वही वेदवाक्य का अर्थ है किंतु अन्यापोहादि के समान नियोग वेदवाक्य का अर्थ नहीं है । इसलिए हम भावनावादी भाट्टों का संप्रदाय ही संवादक सिद्ध होता है यह निश्चित हो गया । क्योंकि सत्यरूप कार्य और भावनालक्षण अर्थ में वेदवाक्य प्रमाण है उसी प्रकार से स्वरूप (विधि) में वे प्रमाण नहीं हैं अर्थात् लिङ्, लोट्, तव्य प्रत्यय से युक्त वेदवाक्य भावना अर्थ में ही प्रमाण है। विधिवाद अर्थ प्रमाण नहीं हैं कारण वहाँ बाधा का सद्भाव है। इस प्रकार से सभी वेदांतवाद का निराकरण कर देने से हम भाट्टों के यहाँ कोई भी बाधा उपस्थित नहीं हो सकती है ।
1 देशनैकट्यम् । 2 अथ कथं तयोः अप्रतिभासने संदेह इत्याह । ( व्या० प्र० ) 3 सामान्यप्रत्यक्षाद्विशेषाप्रत्यक्षाद्विशेषस्मृतेश्च सन्देहो युक्त इत्युक्तवत् । 4 विशेषालिङ्गितस्य । आदिशब्देनातिप्रकाशान्धकारः । 5 किं करोतीति । 6 पृष्ट एव पुमानुत्तरं प्रतिपादयतीत्यर्थः । 7 शक्यविवेचनत्वेन । 8 यजनादिक्रियाविशेषेभ्यो भिन्नत्वेन । 9 भेदेन । (ब्या० प्र० ) 10 करोत्यर्थ लक्षणा । 11 निश्चीयते एव । ( ब्या० प्र० )
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