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________________ १३८ ] अष्टसहस्री कारिका ३ निदर्शनमित्यपि न चोद्यम्-समानत्वात् । 'संवित्स्वलक्षणा द्वैतोपगमात् सिद्धसाधनमिति' चेत् 'संवित्सामान्याद्वैतोपगमात्परस्यापि सिद्धसाधनं कुतो न भवेत् ? 'संवित्सामान्याद्वैतं प्रतीतिविरुद्धम्--विशेषसंविदभावे जातुचिदसंवेदनादिति चेत् संवित्स्वलक्षणाद्वैतमपि तहि प्रतीतिविरुद्धमेव-संवित्सामान्यसंवेदनाभावे तद्विशेषसंवेदनस्य 'सकृदप्यभावात् । सर्वाक्षेपसमाधीनां समानत्वात् । ततो 11निर्बाधप्रतीतिबलाद्मेदव्यवस्थायां सामान्यव्यवस्थाऽस्तु सुघटव । 14अन्तःसंवेदनेषु तद्वद्वहिरर्थेषु च सामान्यविशेषव्यवस्थोररीकर्तुं युक्तानिधिप्रतीतिसिद्धत्वाविशेषात् । एतेनैतदपि प्रत्याख्यातं यदुक्तं धर्मकीत्तिना-- 16अतद्रूपपरावृत्त वस्तुमात्रप्रवेदनात् । सामान्यविषयं प्रोक्त 1 लिङ्ग 1 भेदाप्रतिष्ठितेः ॥इति।। . सौगत-संवित् स्वलक्षण-विशेष अद्वैत को स्वीकार करने से माध्यमिक के प्रति सिद्ध साधन ही है। भाट्ट-यदि ऐसा कहो तो संवित् सामान्य को स्वीकार करने वाले संवित् सामान्यवादी भाट्ट को भी सिद्ध साधन क्यों नहीं हो जावेगा। सौगत-संवित् सामान्याद्वैत तो प्रतीति से विरुद्ध है क्योंकि विशेष संवेदन के अभाव में कदाचित् भी संवेदन नहीं होता है। भाट्ट-यदि ऐसा कहो तब तो संवित् स्वलक्षणाद्वैत भी तो प्रतीति से विरुद्ध ही है क्योंकि संवित् सामान्य के संवेदन का अभाव होने पर तो संवित् विशेष का संवेदन सर्वथा - एक बार भी संभव नहीं है अर्थात् ज्ञान सामान्य का अनुभव न होने पर ज्ञान विशेष का भी अनुभव नहीं हो सकता है । अतः आप दोनों संवेदन वादी के यहाँ आक्षेप और समाधान तो समान ही हैं। इसलिए सामान्य के अभाव में विशेष का भी अभाव हो जाता है अतः निर्बाध प्रतीति के बल से भेद व्यवस्था-विशेषावस्था के सिद्ध हो जाने पर सामान्य व्यवस्था भी सुघटित ही है अर्थात् जैसे भेद व्यवस्था में विशेष प्रतिभासित होता है वैसे ही अंतः संवेदन में सामान्य आभासित होता है। अत: अंत:-संवेदन में और उसी के समान बाह्य पदार्थों में सामान्य विशेष व्यवस्था स्वीकार करना आप सौगत को युक्त ही है क्योंकि निर्बाध प्रतीति से सिद्ध होना दोनों जगह समान है। इसी कथन से उसका भी निरसन हो जाता है जो कि धर्म कीर्ति आचार्य ने कहा है कि श्लोकार्थ-"अतद्रूप से परावृत-अन्य रूप से व्यावृत्त वस्तुमात्र का प्रवेदन होने से सामान्य विषयक ही अनुमान कहा गया है क्योंकि अनुमान से भेद का ग्रहण नहीं होता" ।। 1 सौगतः। (ब्या० प्र०) 2 विशेष। (ब्या० प्र०) 3 मध्यक्षणकाभ्युपगमात् (मध्यमक्षणिकाभ्युपगमात्)। (ब्या० प्र०) 4 माध्यमिकं प्रति । (ब्या० प्र०) 5 भाट्टः। (ब्या० प्र०) 6 विधिवादिनो भट्टस्य । (ब्या० प्र०) 7 सौगतः । (ब्या० प्र०) 8 भाट्टः । (ब्या प्र०) 9 सर्वथा। (ब्या० प्र०) 10 भाट्टः (सामान्याभावे विशेषस्याप्यभावो यतः)। (ब्या० प्र०) 11 विशेषावस्थायाम् । (ब्या० प्र०) 12 सामान्यव्यवस्था तु इति पाठान्तरम् । (ब्या० प्र०) 13 प्रतिभासते विशेषो भेदव्यवस्थायां यथा तथान्तःसंवेदनेषु सामान्यमाभासते। (ब्या० प्र०) 14 अत इति पाठान्तरम् । (ब्या० प्र०) 15 सौगतः । (ब्या०प्र०) 16 अन्यरूपेण । (ब्या० प्र०) 17 अन्यापोह । (ब्या० प्र०) 18 लिङ्गजनितत्वाल्लिङ्गमनुमानम् । (ब्या० प्र०) 19 भेदस्याग्निस्वलक्षणस्यानुमानेनाग्रहणात् । (ब्या० प्र०) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001548
Book TitleAshtsahastri Part 1
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year1889
Total Pages528
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size12 MB
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