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________________ भावनाबाद 1 प्रथम परिच्छेद [ १०७ [ वचनेन कार्यस्य साक्षात्कारो भवति न वेति विचारः ] 'नन्विदं कुर्विति वचनात्कार्ये व्यापारितत्वं पुरुषस्य नियुक्तत्वम् । न च कार्ये 'व्यापृततावस्था भाविनी तेन' साक्षात्कर्तुं शक्या—'तत्साक्षात्करणे नियोगस्याफलत्वप्रसङ्गात् । ततो बाध्यमानैव तत्प्रतीतिरिति । तदेतदसमञ्जसमालक्ष्यते - अन्यत्रापि समानत्वात् । अभिलाषा से प्रवृत्ति होती है। जिस प्रकार से प्रत्यक्ष के जलादि पदार्थ विषय हैं उसकी वहाँ प्रतीति होती है उसी प्रकार के वेदवाक्य का भावना अथवा प्रेरणा अर्थ है उन भावना अथवा प्रेरणा रूप अर्थ की ही वहाँ उनमें प्रतीति होती है इसमें भी बाधा नहीं है। विशेषार्थ-भाट्ट ने कहा कि आप प्रज्ञाकर बौद्ध प्रज्ञाकर न होकर प्रज्ञाशून्य ही हैं क्योंकि जैसे प्रत्यक्ष ज्ञान से बाह्य पदार्थों का ज्ञान हो रहा है वैसे ही शब्दों से बाह्य पदार्थों का ज्ञान हो रहा है । जिस प्रकार से पुरुष के उपयोग रूप अंतरंग सामग्री और इन्द्रिय के सन्निकट पदार्थ आदि रूप बहिरंग सामग्री से प्रत्यक्ष ज्ञान होता है वैसे ही संकेत सामग्री से ही शब्द के द्वारा अर्थ का ज्ञान होता है। यदि शब्द से, बाह्य पदार्थों का ज्ञान नहीं होगा तब तो जल शब्द से जल का ज्ञान, उसमें प्रवृत्ति करना, उसे लाना, प्यास बुझाना, स्नान आदि करना कैसे हो सकेगा ? अतः शब्द से बाह्य पदार्थों का ज्ञान मानना उचित है। एवं यदि बिना संकेत ग्रहण किये गए ही शब्द वस्तु का ज्ञान करा देंगे तब तो बिना संकेत के मनुष्य, तिर्यंच या बालक अथवा गूंगे भी कठिन शास्त्रों का अर्थ समझ जावेंगे । विद्यालयों में पाठकों की आवश्यता नहीं रहेगी । अतएव "इस शब्द का यह अर्थ है" जल शब्द से वाच्य वस्तु जल एवं अग्नि शब्द से वाच्य उष्ण अग्नि है । इन इशारों को संकेत कहते हैं । परीक्षामुख में भी कहा है कि "सहजयोग्यता संकेतवशाद्धि शब्दादयो वस्तुप्रतिपत्ति हेतवः ॥६६॥ यथा मेर्वादय संति" ॥६७।। अर्थों में वाच्य रूप तथा शब्दों में वाचक रूप एक स्वाभाविक योग्यता होती है, जिसमें संकेत हो जाने से ही शब्दादिक पदार्थों के ज्ञान में हेतु हो जाते हैं। जैसे सुमेरु आदि हैं ऐसा मेरु शब्द के कहने या सुनने मात्र से ही जंबूद्वीप के मध्य स्थित सुमेरु का ज्ञान हो जाता है क्योंकि शिष्य को मेरु का संकेत मालूम था उसी प्रकार से सर्वत्र ही शब्द से अर्थ का ज्ञान हो जाता है । अतएव शब्द सर्वथा प्रवृत्ति कराने वाले नहीं हैं ऐसा एकांत गलत है। [शब्द से कार्य का साक्षात्कार होता है या नहीं इस पर विचार] सौगत-"इदं कुरु" इस वचन से याग लक्षण कार्य में पुरुष का व्यापार होना ही नियुक्तत्व है । एवं कार्य में होने वाली व्यापार की अवस्था उस नियोज्य-पुरुष के द्वारा साक्षात् नहीं की जा 1 सौगतः । 2 यागलक्षणे । 3 व्यापृतावस्था इति पा० । (ब्या० प्र०) 4 नियोज्येन । (ब्या० प्र०) 5 भावनाप्रेरणालक्षणार्थस्य । 6 व्यापृतत्व। 7 भट्टः। 8 प्रत्यक्षादावपि बाध्यमानप्रतीतित्वस्य समानत्वात् । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001548
Book TitleAshtsahastri Part 1
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year1889
Total Pages528
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size12 MB
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