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________________ १०४ ] अष्टसहस्री [ कारिका ३ प्रतीतिर्बाध्यमाना' निरालम्बना तथा प्रयोज्यत्वप्रतीतिरपि तेन व स्वव्यापारा' विष्टमात्मानमप्रतीयता' बाध्यते' | शब्दात् सा प्रतीतिरिति च न युक्तम् – तस्य ' "बुद्धयर्थख्यापनत्वात्" । सोपि हि शब्दो बुद्ध्यर्थमेव ख्यापयति । एवं मया प्रतिपादितमेवं 14 मया प्रतिपन्नमिति – द्वयोरपि प्रतिपादकप्रतिपाद्ययोरध्यवसायात् । पौरुषेयवचनाद्धि मयैवं तावत्प्रतिपनमस्य तु वक्तुरय' "मभिप्रायो भवतु मा वाभूदिति " प्रतिपत्ताध्यवस्यति । अपौरुषेयादपि 18 शब्दादेवमयमर्थो मया प्रतिपन्नोस्य " भवतु मा वा भूदिति" वक्तृव्यापारविषयो" योर्थः पौरुषेयशब्दस्य यो वा बुद्धौ प्रकाशतेर्थः अपौरुषेयत्वाभिमतशब्दस्य तत्र 22 प्रामाण्यं न 15 के आधार से ऐसा भी अर्थ कर सकते हैं कि “तथा यज्ञ लक्षण स्वव्यापार में अप्रविष्ट रूप आत्मा का निश्चय कराते हुये पुरुष के द्वारा वह प्रतीति बाधित ही है । यदि आप कहें कि वह प्रतीति शब्द से ही होती है तो ऐसा कहना भी युक्त नहीं है । क्योंकि वह शब्द बुद्धि से कल्पित अर्थ को ख्यापित - प्रगट करता है वह शब्द भी बुद्धि के अर्थ का ही ख्यापन करता है । इस प्रकार से मैंने प्रतिपादित किया है और इस प्रकार मैंने समझा है क्योंकि प्रतिपादकगुरु और प्रतिपाद्य - शिष्य इन दोनों का अध्यवसाय - ज्ञान होता है अर्थात् मैंने यह प्रतिपादन किया, इस प्रकार गुरु में तथा मैंने समझा, इस प्रकार शिष्य में, ऐसा इन दोनों में प्रतिपादक - प्रतिपाद्य सम्बन्ध पाया जाता है । प्रतिपत्ता - श्रोता ऐसा निश्चय करता है कि पौरुषेय वचन से ही "मैंने इस प्रकार से जाना है" इस वक्ता - गुरु का यह अभिप्राय हो या न हो। इसी प्रकार से अपौरुषेय वेद वाक्य से भी "इस प्रकार से मैंने यह अर्थ जाना है इस अपौरुषेय शब्द का यह अर्थ हो या न हो" । ऐसा प्रतिपत्ता - ता-पुरुष जानता है । ऐसा वक्ता के व्यापार का विषयभूत जो अर्थ पौरुषेय शब्द का श्रोता की बुद्धि में प्रकाशित होता है और इसी प्रकार से अपौरुषेय रूप से स्वीकृत शब्द का जो अर्थ बुद्धि में प्रकाशित होता है उसमें वह शब्द व्यापार ही प्रमाण है किन्तु बाह्यार्थ तत्त्व निमित्तक प्रमाणता नहीं है इसलिए विवक्षा में आरूढ़ अर्थ हो वेदवाक्य का अर्थ है किन्तु भावना यह वेदवाक्य का अर्थ नहीं है । यहाँ तक प्रज्ञाकर बौद्ध ने कहा है । विशेषार्थ - यहाँ पर बौद्धों का ऐसा आरोप है कि भाट्ट शब्द के व्यापार को भावना कहते हैं और प्रभाकर को खुश करने के लिये उसी भावना को नियोग कह रहे हैं वे कहते हैं कि भावना से भिन्न 1 सती । 2 बाध्यमाना सती निरालम्बनेति शेषः । 3 पुंसा | 4 स्वव्यापारे अविष्टं यागलक्षणे व्यापारेअप्रविष्टमित्यर्थः । (ब्या० प्र० ) 5 आत्मानं प्रतीयता इति पा० । ( ब्या० प्र० ) 6 प्रयोज्येन । 7 प्रेरणाप्रेषणयोः सम्बन्धिनी । 8 इतो वदति बौद्धः । -सा भाविनी प्रतीतिः शब्दाज्जायते इति हे भट्ट यदुक्तं त्वया तद्वक्तुं युक्तं न । 9 शब्दस्य । 10 बुद्धिशब्देन कल्पना । (ब्या० प्र० ) 11 ख्यापकत्वात् इति पा० । ( ब्या० प्र० ) 12 कल्पना रूढत्वमुल्लिखति । ( ब्या० प्र० ) 13 गुरुणा । 14 शिष्येण । 15 गुरोः । 16 बुद्धघारूढः । 17 श्रोता । 18 वेदवाक्यात् । 21 प्रतिपन्नार्थाव्यभिचारी । वक्तृव्यापारो विवक्षा । 10 अपौरुषेयस्य | 20 प्रतिपत्ताध्ववस्यतीति सम्बन्धः । 22 बुद्धयर्थे Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org.
SR No.001548
Book TitleAshtsahastri Part 1
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year1889
Total Pages528
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size12 MB
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