SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 166
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ विधिवाद ] न्या' देरपि प्रवृत्तिप्रसङ्गात् । प्रथम परिच्छेद भावार्थ - जैसे घट पटादि पदार्थ भिन्न प्रतिभासित होते हैं उस प्रकार से प्रतिभासमात्र परमब्रह्म से भिन्न कार्य रूप से विधि का अनुभव नहीं होता है एवं वचन, चेष्टा आदि के समान प्रेरक रूप - करणरूप से भी वह विधि नहीं जानी जाती है । कर्म साधन में "विधीयते यः सः विधिः" जो विधान किया जावे वह विधि है एवं "विधीयतेऽनेन स विधिः" जिसके द्वारा विधान किया जावे वह विधि है, इस प्रकार से करण साधन है । निरूक्ति के अनुसार कर्म साधन में कार्यता प्रत्यय के द्वारा एवं करण साधन में प्रेरकता प्रत्यय के द्वारा विधि का अनुभव नहीं आता है । यदि कोई कहे कि विधि का क्या स्वरूप है ? तो हम अद्वैतवादियों का कहना है कि "अरे संसारी जीव ! यह आत्मा दर्शन करने योग्य, श्रवण करने योग्य, मनन करने योग्य है और ध्यान करने योग्य है" "ब्रह्मविद् ब्रह्मैव भवति" ब्रह्म को जानने वाला ब्रह्मस्वरूप ही हो जाता है । "ब्रह्मविदाप्नोति परं " “नाहं खल्वयमेवं संप्रत्यात्मानं जानामि अहमस्मि इति नो इवेमानि भूतानि" इत्यादि शब्दों के सुनने से अन्य अवस्थाओं से विलक्षण होकर उत्पन्न हुई चेष्टा रूप आकार से मैं प्रेरित हुआ हूँ इस प्रकार से स्वयं आत्मा ही प्रतिभासित होता है और वह आत्मा ही "विधि" इस शब्द के द्वारा कहा जाता है, अर्थात् विधि का ज्ञान, विधि में ज्ञान ये सब अभेद होने से विधि स्वरूप ब्रह्म ही हैं । अतः विधि को प्रधान रूप से वाक्य का अर्थ कहने से उन विधिवाचक (विधायक) वाक्यों से आत्मा का ही विधान हो जाता है और उस आत्मा के दर्शन, श्रवण आदि से विधि ही कर्मरूप हो जाती है । पुनः स्वयं आत्मा ही अपने को देखने के लिये, सुनने के लिये, अनुमनन करने के लिये एवं ध्यान करने के लिये प्रवृत्ति करता है । आत्मा ही वेदवाक्य है, कर्ता, कर्म, क्रिया भी स्वयं आत्मा ही है अतएव "मैं स्वयं आत्मा से प्रेरित हुआ हूँ" ऐसा अनुभव हो रहा है क्योंकि विधायक, विधीयमान और भाव विधि रूप से वह परमब्रह्म ही प्रतिभासित हो रहा है एवं आत्मस्वरूप के अतिरिक्त उस परमब्रह्म का अभाव ही है अतएव यह विधि सत्य ही है इत्यादि रूप से विधिवादी ने अपना पक्ष रखा है । 1 का (पञ्चमी) । अब भाट्ट प्रभाकर का मत पुष्ट करते हुये उसका निराकरण करते हैं अर्थात् अव्यक्त रूप से प्रभाकर के द्वारा विधिवाद का खंडन कराते हैं । भाट्टों का कहना है कि आप विधिवादी के कथनानुसार वाक्य के अर्थ नियोग, भावना आदि भी अनुभव में आ रहे हैं। जैसे "अग्निष्टोमेन यजेत" आदि शब्दों से नियोग प्रतीत हो रहा है वैसे ही "दृष्टव्योरेऽयमात्मा" इत्यादि शब्दों के द्वारा भी "मैं इस वाक्य के द्वारा नियुक्त - प्रेरित हुआ हूँ" इस प्रकार से परिपूर्ण रूप से योग हो जाना उसमें लीन हो जाना ही तो नियोग है जो कि इस वाक्य से भी प्रतिभासित हो रहा है क्योंकि इस वाक्य से भी अवश्य कर्तव्यता का ज्ञान हो जाने से किंचित् मात्र भी शंका नहीं रह जाती है और यदि आप " दृष्टव्योरे" इत्यादि वाक्यों से पूर्ण योग - लीनता - प्रेरित अवस्था नहीं मानोगे तो इन वाक्यों के सुनने से श्रोता मनुष्यों की उस ब्रह्म के विषय में दर्शन, श्रवण, मनन, ध्यान आदि की प्रवृत्ति भी कैसे हो सकेगी ? यदि " इति कर्तव्यता" यह मेरा करने योग्य कार्य है इस रूप नियोग ज्ञान के बिना ही चाहे Jain Education International [ ८३ For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001548
Book TitleAshtsahastri Part 1
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year1889
Total Pages528
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size12 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy