SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 164
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ विधिवाद । प्रथम परिच्छेद [ ८१ भवता' तस्यैव' 'यतो व्यवस्थितत्वात् । प्रतिभासमात्राद्धि पृथग् विधिः कार्यतया न प्रतीयते घटादिवत् प्रेरकतया च नाध्यवसीयते वचनादिवत् । कर्मकरणसाधनतया हि तत्प्रतीतौ कार्यताप्रेरकता प्रत्ययो युक्तो 1 नान्यथा । [ वेदांतवादी पुनरपि ब्रह्माद्वैतवादं समर्थयति ] किहि ? दृष्टव्यो रेयमात्मा श्रोतव्योनुमन्तव्यो निदिध्यासितव्य इत्यादिशब्दश्रवणादवस्थान्तर विलक्षणेन प्रेरितोहमिति जाताकूतेनाकारेण स्वयमात्मैव प्रतिभाति । स एव विधिरित्युच्यते । 13तस्य च ज्ञान14 विषयतया15 16सम्बन्धमधितिष्ठतीति प्रधानभावविभावना7 विधेन18 विहन्यते_1'तथाविधवेदवाक्यादात्मन20 एव विधायकतया21 प्रतिभासनात् । तद्दर्शनश्रवणानुमननध्यानरूपस्य2 विधीयमानतयानुभवात् । तथा23 च स्वयमात्माऽऽत्मानं अर्थात् कर्म और करण रूप साधन के अभाव में विधि का ज्ञान मानने पर कार्यता और प्रेरकता प्रत्यय युक्त नहीं हैं। [ यहाँ विधिवादी पुनरपि ब्रह्माद्वैतवाद का समर्थन करते हैं। ] भाट्ट-पुनः वह विधि किस रूप है ? विधिवादी-सो हम बताते हैं। "दृष्टव्योरेऽयमात्मा श्रोतव्योऽनुमन्तव्यो निदिध्यासितव्यः" इत्यादि शब्दों के सुनने से अवस्थांतर से विलक्षण-अप्रेरितावस्था से विलक्षण–अदृष्टव्यादि से विलक्षण रूप से "मैं प्रेरित हुआ हूँ" इस प्रकार के अभिप्राय और आकार से सहित होकर स्वयं आत्मा ही प्रतिभासित होता है और वही विधि है इस प्रकार से कहा जाता है। उस विधि का ज्ञान विषय रूप से संबंध को प्राप्त कर लेता है इसलिये विधि का प्रधान भाव मानना विरुद्ध नहीं है अर्थात् दर्शन, मनन आदि विधीयमान रूप से विधि-ब्रह्म से संबंध को प्राप्त होते हैं। 'वृक्ष की शाखा के समान' अभेद अर्थ में षष्ठी होती है किन्तु ब्रह्म रूप से एकत्व ही है। वह ब्रह्म ही विषयी है और वही विषय है। 1 प्रभाकरेण। 2 (वेदान्त्याह) नियोगमतावलम्बिना भटेन त्वया। 3 तस्यैवमव्यस्थितत्त्वात् । इति पा० । (ब्या० प्र०) 4 विधेः। 5 असत्यत्वप्रकारेण । (ब्या० प्र०) 6 यथा घटादि: कार्यतया पृथक् प्रतीयते तथा विधिः प्रतिभासमात्रात् पृथइन प्रतीयते। 7 यथा प्रेरकतया वचनमध्यवसीयते तथा विधिर्न। 8 विधि। 9 कार्यताप्रेरकता (विधेः) न युक्तेत्येव खपाठः। 10 कर्मकरणसाधनाभावे विधिपरिज्ञाने कार्यताप्रेरकताप्रत्ययो युक्तो न । 11 दर्शनादिरूपेण । (ब्या० प्र०) 12 अप्रेरितावस्थाविलक्षणेन । अद्रष्टव्यादिविलक्षणेन । 13 विधेः। 14 दर्शनादिक विधीयमानतया विधेः संबंधमधितिष्ठतीति यावद् वक्षस्य शाखेवाभेदे षष्ठी विधिनैकत्वमेवेत्यर्थः (ब्या० प्र.) 15 स एव विषयी स एव विषयः । दृश्यदष्ट्रत्वाद्योः । (ब्या० प्र०) 16 दर्शनादिकं विधीयमानतया विधेः सम्बन्धमधितिष्ठतीति यावत् । वृक्षस्य शाखेवाभेदे षष्ठीविधिना एकत्वमेवेत्यर्थः। 17 निश्चयः । (ब्या० प्र०) 18 विधेमुख्यत्व निश्चयो न विरुद्ध्यते । 19 संबंधमधितिष्ठतीत्येतस्य समर्थनात् । (ब्या० प्र०)20 वेदवाक्यादात्मान्य एव न तदर्शयति । वेदवाक्यं ज्ञानमेव तच्चात्मनो धर्मोतः कारणाद्वेदवाक्यात्मनोरभेद एवेति । 21 दृष्ट्रत्वादितया। (ब्या० प्र०) 22 आत्मस्वरूपस्य । (ब्या० प्र०) 23 विधायकविधीयमानयोरभेदे । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001548
Book TitleAshtsahastri Part 1
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year1889
Total Pages528
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size12 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy