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________________ विधिवाद । प्रथम परिच्छेद [ ७६ विधेहिकं वाक्यमप्रधानतया विधि विषयीकरोति प्रधानतया वा ? इति विकल्प्योभयं दूषयति ] किञ्च तद्विधिविषयं वाक्यं गुणभावेन प्रधानभावेन वा विधौ प्रमाणं स्यात् ? यदि गुणभावेन तदाग्निहोत्रं जुहुयात्स्वर्गकाम इत्यादिरपि 'तदस्तु'-गुणभावेन' विधिविषयत्वस्य भावात्-तत्र भट्टमतानुसारिभिर्भावनाप्राधान्येनोपगमात्-प्राभाकरैश्च नियोगगोचरत्वस्य प्रधानत्वाङ्गीकरणात्। तौ च भावनानियोगौ नासद्विषयौ प्रवर्तेते प्रतीयते वा सर्वथाप्यसतोः प्रतीतौ प्रवृत्तौ वा शशविषाणादेरपि तदनुषक्तेः । सद्रूपतया' च तयोविधि10नान्तरीयकत्वसिद्धः सिध्दं गुणभावेन विधिविषयत्वं वाक्यस्य । इति नाप्रमाणतापत्तिर्येन कर्मकाण्डस्य पारमार्थिकता न भवेत् । प्रधानभावेन विधिविषयं चोदनावाक्यं प्रमाणमिति [विधि को ग्रहण करने वाले वाक्य अप्रधान रूप से विधि को ग्रहण करते हैं या प्रधान रूप से ? दोनों विकल्पों का निराकरण।] दूसरी बात यह है कि उस विधि को विषय करने वाले वाक्य गौण भाव से विधि को ग्रहण करने में प्रमाण हैं या प्रधान भाव से ? यदि प्रथम पक्ष लेवो तो "अग्निहोत्रं जुहुयात् स्वर्गकामः" इत्यादि वाक्य भी उस नियोग भावना रूप हो जावें क्योंकि विधि का विषय गौण रूप से है। विधि में हम भाट्टों ने भावना को प्रधानता से स्वीकार किया है, और प्राभाकरों ने नियोग का विषय प्रधान माना है वे भावना और नियोग असत् के विषय नहीं हैं न असत् रूप से प्रतीत ही हैं, क्योंकि सर्वथा भी असत् की प्रतीति मान लेने पर शशविषाणादि की प्रतीति और उनमें प्रवृत्ति होने लगेगी। सत् रूप से वह भावना और नियोग विधि से भिन्न नहीं हैं इसलिये वेदवाक्य विधि को गौण रूप से विषय करते हैं यह बात सिद्ध हो गई। अतः अप्रमाणिकता का प्रसंग नहीं आता है जिससे कि कर्मकांड (क्रियाकांड) को पारमार्थिकपना न होवे अर्थात् कर्मकाण्ड पारमार्थिक ही सिद्ध हो जाते हैं यदि आप कहें कि हम द्वितीय पक्ष ले करके वेदवाक्य को प्रधानभाव से विधि को विषय करने है इसलिये वे प्रमाण है। यह कथन भी अयूक्त है क्योंकि विधि को सत्यरूप मान लेवेंगे तब तो द्वैत का प्रसंग आ जावेगा । अर्थात श्रोतव्य और श्रोता आदि के भेद से वि विधेय से भी भेद होने से द्वैत हो जावेगा और यदि उस विधि को असत्य मानेंगे तब तो वह प्रधान नहीं हो सकेगी। तथाहि "विधि प्रधानाभाव का अनुभव नहीं करती है क्योंकि वह असत्य है जो जो असत्य 1 नियोगभावनास्तित्वम् । 2 विधौ प्रमाणत्वमस्तु । (ब्या० प्र०) 3 नियोगस्योपचारेण विधिविषयत्वघटनात् । 4 विधी। 5 प्रधानताङ्गीकरणात् । इति पा० । (ब्या० प्र०) 6 असतौ च तो विषयौ च। 7 सर्वथाप्यविद्यमानस्य शशकशृङ्गगगन कुसुमवन्ध्यास्तनन्धयादेरपि तयोः प्रतीतिप्रवृत्तिकयोरनुषङ्गात् । 8 सद्पस्य ब्रह्मत्वस्य प्रतिपादनात् । (ब्या० प्र०) 9 भावनानियोगयोन्तिरीयकत्वं (न विच्छेदकत्वमविनाभावित्वं वा) तस्य सिद्धेर्घटनात् । 10 अस्तित्व । अविनाभाव । (ब्या० प्र०) 11 अग्निहोत्रादे: । (ब्या० प्र०) 12 वेदवाक्यं मुख्यं विधिरपि मुख्य इति चेन्न-तथा-सति द्वैताभावात् । * वर्ण्यते इत्यपि पूस्तकान्तरे । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001548
Book TitleAshtsahastri Part 1
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year1889
Total Pages528
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size12 MB
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