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________________ अष्टसहस्री ७८ ] [ कारिका ३नुषक्तेः । शब्दस्य सिद्धरूपत्वात्तद्धर्मो नियोगः कथमसिद्धो येनासौ सम्पाद्यते कस्यचिदित्यपि न मन्तव्यम् --विधिसम्पादनविरोधात्-तस्यापि सिद्धोपनिषद्वाक्यधर्मत्वाविशेषात् । प्रसिद्धस्यापि' सम्पादने पुनःपुनस्तत्सम्पादनप्रवृत्त्यनुपरमात् कथमुपनिषद्वाक्यस्य प्रमाणता--तदपूर्वार्थताविरहात्स्मृतिवत् । तस्य वा प्रमाणत्वे नियोगवाक्यं प्रमाणमस्तु-विशेषाभावात् । चाहिए क्योंकि विधि में भी ऐसा प्रतिपादन करना विरुद्ध है वह विधि का संपादन भी प्रसिद्ध उपनिषद्वाक्य का धर्म है दोनों जगह कोई अन्तर नहीं है। प्रसिद्ध-निष्पन्न को भी संपादित करने में पुन: पुनः उसके संपादन की प्रवृत्ति का विराम-अभाव ही नहीं होगा पुनः उपनिषद्वाक्य में प्रमाणता कैसे आवेगी क्योंकि वह अपूर्वार्थपने से रहित हैं जैसे कि स्मृति अपूर्वार्थ का प्रतिपादन नहीं करती है अथवा उसको प्रमाण मानोगे तो नियोग वाक्य को भी प्रमाण मानो कोई अंतर नहीं है । भावार्थ-अब तीसरे प्रकार से विधायक शब्द के धर्म को विधि मानने पर नियोजक शब्द के धर्म को भी नियोग कहना पड़ेगा इसका स्पष्टीकरण करते हैं कि "दृष्टव्योरेऽयमात्मा" इत्यादि वाक्यों के द्वारा विधायक शब्द के धर्म को विधि कहने पर तो "अग्निष्टोमेन यजेत स्वर्गकामः" इत्यादि वाक्यों के द्वारा नियोक्ता शब्दों के धर्म को भी नियोग मानना पड़ेगा। इस पर विधिवादी यों कहता है कि शब्द को कूटस्थ नित्य मानने वाले मीमांसकों के भाई आप प्राभाकरों के यहाँ शब्द का परिपूर्ण रूप सिद्ध है अतः उस शब्द का धर्म नियोग असिद्ध कैसे रहेगा कि जिससे उस नियोग को कर्मकांड वाक्यों के द्वारा कोई भी श्रोता संपादित कर सके। इस पर भाट्ट का कहना है कि आप विधिवादी के यहाँ भी अनादि काल से परिपूर्ण सिद्ध वैदिक उपदिषद् वाक्यों का धर्म विधि है इस मान्यता में भी वेदवाक्य का धर्म विधि भी नित्य ही ठहरी। यदि सर्व अंशों में परिपूर्ण रूप से सिद्ध हो चुके पदार्थ का भी संपादन करना माना जावेगा तो पुनः सिद्ध हो चुके का भी अनुष्ठान किया जावेगा तो कभी भी अनुष्ठान का अन्त ही नहीं हो सकेगा। इस कारण स्मति के समान अ के ग्राही न होने से आत्म प्रतिपादक वैदिक उपनिषद् वचनों को प्रमाणता नहीं आ सकती है। यहाँ पर स्मृति का दृष्टांत नियोगवादी की अपेक्षा से दिया गया है क्योंकि स्याद्वाद सिद्धांत में स्मृति को अपूर्वार्थग्राही मानकर प्रमाणीक माना है यदि फिर भी विधिवादी गृहीत के ग्राहक उन उपनिषद् वचनों को प्रमाण मानेंगे तो नियोग वाक्य भी प्रमाण हो जावेंगे। अथे 1 शब्दस्त्वग्निहोत्रं जुहुयादित्यादिः सिद्धरूप: शब्दधर्म एव नियोगः कथमसिद्धो यतो यागादिः कर्त्तव्यः स्यात् । 2 वेदवाक्येनानुष्ठेयो भवतीति प्रतिपाद्यते । 3 नुः । (ब्या० प्र०) 4 अन्यथा । (ब्या० प्र०) 5 विधिसम्पादनस्य । 6 ज्ञातस्यापि। 7 निष्पन्नस्यापि । (ब्या० प्र०) 8 अनुपरमाङ्गीकारे । (ब्या० प्र०) 9 वेदस्य उप समीपे निषदनमुपनिषत् तस्य वाक्यमुपनिषद्वाक्यं पक्षः प्रमाणं न भवतीति साध्यो धर्मः तस्यापूर्वार्थ नाविरहात् । यथा स्मृतिः । यथा स्मृतेरपूर्वार्थताप्रतिपादनं नास्ति श्रुत्यनुसारित्वात् तथेत्यर्थः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org.
SR No.001548
Book TitleAshtsahastri Part 1
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year1889
Total Pages528
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size12 MB
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