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________________ नियोगवाद ] प्रथम परिच्छेद [ ४५ रहितायाः 'प्रेरणायाः प्रलापमात्रत्वान्नियोगरूपतानुपपत्तेः । प्रेरणासहितं कार्य नियोग इत्यप्यसम्भाव्यम्-नियोज्यविरहे नियोगविरोधात् । कार्यसहिता प्रेरणा नियोग इत्यप्यनेन निरस्तम् । कार्यस्यैवोपचारतः प्रवर्तकत्वं नियोग इत्यप्यसारम्-नियोज्यादिनिरपेक्षस्य कार्यस्य प्रवर्तकत्वोपचारायोगात् । कदाचित्क्वचित्परमार्थतस्तस्य तथानुपलम्भाच्च । 'कार्यप्रेरणयोः सम्बन्धो नियोग इति वचनमसङ्गतम्-'ततो भिन्नस्य सम्बन्धस्य सम्बन्धिनिरपेक्षस्य 11नियोगत्वाघटनात् सम्बन्ध्यात्मनः सम्बन्धस्य नियोगत्वमित्यपि दुरन्वयम्नियोग से स्वर्ग नहीं मिल सकता है जैसे कि कम्बल को कुदाली कह देने से उससे सड़क का खोदना नहीं हो सकता है। (२) और जो आपने कहा था कि "शुद्ध प्रेरणा ही नियोग है" अर्थात् 'अग्निष्टोमेन यजेत स्वर्गकामः" इस कथन का भी पूर्वोत्त कथन से ही निरसन हो जाता है। नियोज्य-पुरुष और उसका फल-स्वर्ग इन दोनों से रहित प्रेरणा प्रलाप मात्र ही है इसलिये वह प्रेरणा नियोग रूप नहीं हो सकती है। (३) "प्रेरणा सहित कार्य नियोग है" यह पक्ष भी असम्भव है क्योंकि नियोज्य मनुष्य के न होने पर नियोग ही असम्भव है। (४) "कार्य सहित प्रेरणा ही नियोग है" इसका भी इसी कथन से निरसन हो जाता है। (५) "कार्य ही उपचार से प्रवर्तक होने से नियोग है" यह पक्ष भी असार है। नियोज्यपुरुष आदि से निरपेक्ष कार्य में प्रवर्तक का उपचार ही नहीं हो सकता है क्योंकि कदाचित् क्वचित् परमार्थ से वह नियोज्यादि निरपेक्ष कार्य प्रवर्तक प्रकार से उपलब्ध नहीं होता है । अर्थात् नियोज्यश्रोता-पुरुष, नियोजक-शब्दादि की अपेक्षा रहित कार्य उपचार से भी यज्ञादि में प्रवृत्ति नहीं करता है। मुख्य रूप से सिंह के असिद्ध होने पर वीर पुरुषों में सिंह का उपचार कर दिया जाता है किन्तु यहाँ कभी कहीं नियोज्यादि से रहित केवल कार्य उस प्रकार से प्रवर्तक नहीं हो सकता है। (६) "यागादि कार्य और वेदवाक्य रूप प्रेरणा का सम्बन्ध ही नियोग है।" यह वचन भी असंगत है क्योंकि कार्य और प्रेरणा रूप सम्बन्धी से भिन्न सम्बन्ध यदि सम्बन्धी से निरपेक्ष है तो वह नियोग रूप से घटित नहीं हो सकता है। “संबंध्यात्मक सम्बन्ध को नियोग कहना भी दुरन्वयगलत ही है" क्योंकि प्रेर्यमाण पुरुष से निरपेक्ष, संबंध्यात्मक भी कार्य और प्रेरणा नियोग नहीं हो सकते हैं। भावार्थ-सम्बन्धियों से सर्वथा भिन्न पड़ा हुआ सम्बन्ध तटस्थ पदार्थ के समान उनका नियोग 1 प्रेरकत्वस्य । 2 निरर्थकत्वात् । 3 निरर्थकत्वादिति भावः। 4 नियोज्यादिनिरपेक्षस्य कार्यस्य । 5 प्रवर्तकत्वप्रकारेण । 6 यागादि । 7 वेदवाक्य । 8 इति च न सङ्गतमिति खपुस्तकपाठः। 9 कार्यप्रेरणारूपेभ्यः सम्बन्भ्यिः । 10 सम्बन्धो हि सम्बन्धिभ्यां भिन्नोऽभिन्नो वेति विकल्पद्वयमवतीति क्रमेण निराकूर्वन्नाह। 11 नियोगत्वेनाघटनादिति खपुस्तकपाठः । 12 सम्बन्धिनावात्मानी स्वरूपे यस्य । 13 दुष्टोपदेशः । (ब्या० प्र०) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001548
Book TitleAshtsahastri Part 1
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year1889
Total Pages528
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size12 MB
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