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४४ ] अष्टसहस्री
[ कारिका ३खल्विदं ब्रह्मे" त्यादि वचनमपि विधिमात्रप्रतिपादकमनुपालभ्यमस्तु तत एव । तथा च वेदान्तवादसिद्धिः । तस्मान्न नियोगो वाक्यार्थः कस्यचित्प्रवृत्तिहेतुत्वाभावाद्विधिवत् ।
[ पूर्व कथितकादशप्रकारस्य नियोगस्य क्रमशः निराकरणम् ] सर्वेषु च पक्षेषु नियोगस्य प्रत्येक विचार्यमाणस्यायोगान्न वाक्यार्थत्वमवतिष्ठते । तथा हि । न तावत्कार्यं शुद्धं नियोग इति पक्षो घटते प्रेरणानियोज्यजितस्य' नियोगस्यासम्भवात् । तस्मिन्नियोगसंज्ञाकरणे स्वकम्बलस्य कूर्दालिकेति नामान्तरकरणमात्रे स्यात् । न च तावता 'स्वेष्टसिद्धिः । शुद्धा प्रेरणा नियोग इत्यप्यनेनापास्तं11_12नियोज्यफल-13
नियोगवादी प्रभाकर-यदि हम पौरुषेय वचन-पुरुष के वचन से नियोग का अर्थ करें तब तो उपर्युक्त दोष आ सकते हैं किंतु हम तो अपौरुषेय वेद के अग्निहोत्रादि वाक्य से नियोग मानते हैं अतएव उस मान्यता में आप उलाहना नहीं दे सकते हैं ।
भावनावादी-भाट्ट-तब "सर्वं वै खल्विदं ब्रह्म नेह नानास्ति किञ्चन। आरामं तस्य पश्यंति न तं पश्यति कश्चन ॥” इस विधि मात्र के प्रतिपादक वचन भी निर्दोष सिद्ध होवें क्या बाधा है ? क्योंकि अपौरुषेयत्व हेतु दोनों जगह समान है और उस प्रकार से तो वेदांतवाद की सिद्धि हो जाती है। इसलिये वेदवाक्य का अर्थ नियोग नहीं है क्योंकि उसमें किसी भी पुरुष की प्रवृत्ति का अभाव है जैसे विधि-परब्रह्म में किसी की प्रवृत्ति नहीं है। [प्रारम्भ में जो नियोग के ११ प्रकार से अर्थ किये हैं उनका क्रमशः भाट्ट द्वारा खंडन किया जा रहा है ]
उपर्युक्त सभी एकादस प्रकार के पक्षों में प्रत्येक का विचार करने से वह नियोग सिद्ध नहीं होता है अतः वेदवाक्य का अर्थ नियोग करना ठीक नहीं है । तथाहि
(१) “शुद्ध कार्य नियोग है" यह पक्ष भी घटित नहीं होता क्योंकि "यजेत स्वर्ग कामः" इस प्रकार से प्रेरणा और नियोज्य - स्वर्ग की इच्छा करने वाले श्रोतापुरुष से वजित नियोग ही असम्भव है अर्थात् स्वर्ग की इच्छा करने वाले पुरुष से वजित नियोग ही असम्भव है । और उसकी नियोग संज्ञा करने पर तो अपने कम्बल को 'कूालिका-कुदालि' ऐसा एक भिन्न नाम रख दिया गया मात्र ही हो जाता किन्तु उतने से अपने इष्ट अर्थ की सिद्धि नहीं हो सकती है । अर्थात् नियोग पक्ष में स्वर्ग है और कूलिका-कुदालो पक्ष में खोदना आदि है । अर्थात् कुछ का कुछ नाम रख देने से कार्य की सिद्धि नहीं हो सकती । प्रेरणा और नियोज्य पुरुष से रहित केवल शुद्ध कार्य रूप
1 नेह नानास्ति किञ्चन । आराम (विस्तारं) तस्य पश्यन्ति न तत्पश्यति कश्चन ॥ 2 अदूष्यत्वस्याविशिष्टत्वात् । 3 पुरुषस्य। 4 परब्रह्म यथा। 5 एकादशभेदनियोगेषु। 6 यजेतेति । प्रवर्तकत्त्व । 7 स्वर्गकाम। 8 कुदाली । 9 स्वर्ग । स्वर्गो नियोगपक्षे कूर्दालिकापक्षे खननादि। 10 अग्निष्टोमेन यजेत स्वर्गकाम इत्यादि। 11 पूर्वोक्तेन वक्ष्यमाणेन च। 12 नियोज्यः पुमान् । 13 स्वर्गः । 14 अपौरुषेयत्वादेव । (ब्या० प्र०)
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