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________________ २० ] अष्टसहस्री [ कारिका ३इति । ततोऽनकान्तिको हेतुः * तीर्थकरत्वाख्यो न 'कस्यचिन्महत्त्वं साधयतीति कश्चिदेव गुर्महान् भवेत् ? नैव भवेदित्यायातम् । अत एव न कश्चित्पुरुषः सर्वज्ञः * स्तुत्यः श्रेयोथिनां श्रुतेरेव' श्रेयःसाधनोपदेशप्रसिद्धरित्यपरः । तं प्रत्यपीयमेव कारिका योच्या। तीर्थं कृन्तन्तीति तीर्थकृतो मीमांसकाः सर्वज्ञागमनिराकरणवादित्वात् । तेषां 'समयास्तीर्थकृत्समयास्तीर्थच्छेदसम्प्रदाया भावनादि वाक्यार्थप्रवादा इत्यर्थः। तेषां च परस्परविरोधादाप्तता संवादकता' 10नास्तीति कश्चिदेव सम्प्रदायो भवेद्गुरुः "संवादको नैव भवेदिति व्याख्यानात् । तदेवं वक्तव्यम् । और यदि दोनों सर्वज्ञ हैं तो उन दोनों में मतभेद क्यों पाया जाता है, क्योंकि बुद्ध तो सर्वथा वस्तु को क्षणिक ही मानते हैं और सांख्य सर्वथा सभी वस्तु को नित्य ही मानते हैं। __इसलिए यह 'तीर्थकरत्व' हेतु अनेकांतिक है,* यह किसी भी पुरुष को "महान्" सिद्ध नहीं कर सकता है । अतः कोई गुरु-महान् हो सकता है क्या ? अर्थात् नहीं हो सकता है। अब मीमांसक कहते हैं कि इसीलिए मोक्षाभिलाषी के द्वारा कोई भी पुरुष विशेष सर्वज्ञ स्तुति योग्य नहीं है ।* श्रुति अर्थात् अपौरुषेय वेद के द्वारा ही मोक्ष के साधन भूत उपदेश की प्रसिद्धि है। ऐसा कहने वाले उन मीमांसकों के प्रति भी इस कारिका का अर्थ इस प्रकार करना चाहिए "तीर्थं कृन्तन्तीति तीर्थकृतो मीमांसका:' अर्थात मीमांसकजन तीर्थ का नाश करने वाले तीर्थकृत् हैं क्योंकि वे सर्वज्ञ के द्वारा प्रतिपादित आगम का निराकरण करने वाले हैं। उनके आगम (उपदेश) तीर्थकृत् आगम हैं, अर्थात् तीर्थ के नाशक सम्प्रदाय वाले हैं-भावना, विधि, और नियोग रूप वेद वाक्यों के प्रतिपादक अर्थ करने वाले हैं। अर्थात वेदवाक्यों का अर्थ के करते हैं, कोई उससे विरुद्ध विधिरूप करते हैं, एवं कोई उससे विरुद्ध नियोगरूप करते हैं । इसलिए उनमें परस्पर में विरोध होने से आप्तपना-संवादकपना सम्भव नहीं है। अतः कोई भी सम्प्रदाय गुरुसंवादक नहीं है, ऐसा व्याख्यान समझना चाहिए। ___ भावार्थ-पुनरपि श्री समंतभद्र स्वामी भगवान् को तीर्थकृत्त्व हेतु से भी महान् सिद्ध नहीं कर रहे हैं। इस पर मीमांसक, चार्वाक और शून्यवादो को बोलने का मौका मिल जाता है। वे कहते हैं कि कारिका के "कश्चिदेव भवेद्गुरुः" इस अंतिम चरण का वक्रोक्ति के द्वारा प्रश्न वाचक अर्थ कर दीजिये कि सभी आगमों में परस्पर में विरोध पाया जाता है अतः "क्या कोई गुरु भगवान् हो सकता है ?" अर्थात् नहीं हो सकता है। बस ! ऐसा अर्थ कर देने पर हम मीमांसकों का मत पुष्ट हो 1 पुंसः । 2 यत एवं ततस्तीर्थकरत्वनामा हेतुर्व्यभिचारी सन् कस्यचित् सुगतादेमहत्त्वं न साधयति । 3 सर्वेषां तीर्थकरत्वप्रतिपादकत्वमस्ति येतः । 4 श्रेयोथिनां कथं श्रेय इत्युक्ते आह 'वेदात्'। 5 मीमांसकः। 6 सर्वज्ञप्रतिपादक । 7 उपदेशाः। 8 आदिशब्देन विधिनियोगी। 9 संवादकताप्रेरणालक्षणभावनाज्ञानम् । 10 संवादकता नास्ति यतः। 11 भावनारूपे। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org .
SR No.001548
Book TitleAshtsahastri Part 1
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year1889
Total Pages528
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size12 MB
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