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प्रस्तावना
१३५ 'टी' प्रति-यह प्रति ताड़पत्रपर है। और यह श्रीवीरवाणीविलास-भवन मुडबिद्रीसे प्राप्त हुई थी। यह पुराने कन्नड़ी अक्षरों में लिखी हुई है । इसमें केवल दोहे ही हैं ।
'के' प्रति-यह भी मडबिद्रीके. वीरवाणीविलास-भवनकी प्रति है। हस्तक्षरोंकी समानतासे यह स्पष्ट है कि 'टी' और 'के' प्रति एक ही लेखकको लिखी हुई है । इसकी लिपि पुरानी कन्नड़ी है ।
'एम' प्रति-इसमें भी केवल मल ही है। इसका लेखक ताडपत्रपर लिखने में प्रवीण नहीं था। इसमें नं०१६ से २३ तक केवल आठ पत्र हैं। पहले पत्र में 'मोक्षप्राभ' पर बाल चन्द्र की कन्नड़टीका है उसके बाद बिना किसी उत्थानिकाके परमात्मप्रकाशका दोहा लिखा है।
इन प्रतियोंका परस्परमें सम्बन्ध-जोइंदुके मूलके दो रूप है, एक संक्षिप्त और दूसरा विस्तृत । 'टी' 'के' और 'एम' प्रति उसके संक्षिप्त रूपके अनुयायी है, और 'पी' 'ए' 'बी' 'सी' और 'एस' उसके विस्तृत रूप के। 'क्य' प्रति 'ए' प्रति से मिलती है, किन्तु उस पर 'टी' 'के' और 'एम' के भी प्रभाव हैं। 'आर्' प्रतिपर 'ए' 'पी' 'टी' 'के' और 'एम्' का प्रभाव है।
५ योगसारको प्रतियाँ योगसारको प्रतियोंका तुलनात्मक वर्णन-इस संस्करण में मुद्रित योगसारका सम्पादन नीचे लिखी प्रतियोंके आधारपर किया गया है।
'अ'-५० के० भजबलि शास्त्रीकी कृपासे जैनसिद्धान्त भवन आरासे यह प्रति प्राप्त हुई थी। इसमें दस पत्रे हैं, जो दोनों ओर लिखे हए है, केवल पहला और अन्तिम पत्र एक ओर ही लिखा है । सम्वत् १९९२ में देहलीके किसी भण्डारकी प्राचीन प्रतिके आधारपर आधुनिक देवनागरी अक्षरों में यह प्रति लिखी गई है । इसमें दोहे और उनपर गुजराती भाषाके टब्बे हैं, इसमें अशुद्धियाँ अधिक हैं।
प'-मुनि श्रीपुण्यविजयजी महाराजको कृपासे पाटनके भण्डारसे यह प्रति प्राप्त हुई थी। इसमें भी दोहे और उनका गुजराती अनुवाद है । यह अनुवाद 'अ' प्रतिके अनुवादसे मिलता जुलता है । यह प्रति बिल्कुल शुद्ध है और 'अ' प्रतिको अशुद्धियोंका शोवन करने में इससे काफ़ी सहायता मिली है, गुजराती अनुवाद (टब्बे) में इसका लेखन-काल सम्वत् १७१२ चैत्र शुक्ल १२ दिया है ।
'ब'-बम्बईके पं० नाथरामजी प्रेमीसे यह प्रति प्राप्त हुई थी। इसमें केवल दोहे ही है. देवनागरी अक्षरोंमें लिखे है। यह प्रति प्रायः शुद्ध है। इसके कमज़ोर पत्रों और टूटे किनारोंसे यह प्रति संपादनमें उपयुक्त चारों प्रतियों में से सबसे अधिक प्राचीन मालूम होती है मालूम हुआ है कि मणिकचन्द्रग्रन्थमालामें मुद्रित योगसारका सम्पादन इसी प्रतिके आधारपर किया गया है।
'झ'--पं० पन्नालालजी सोनीकी कृपासे झालरापाटनके श्रीऐलक पन्नालाल दि० जैन सरस्वती भवन से यह प्रति प्राप्त हुई थी। इसमें केवल दोहे ही हैं। इसकी लिपि सुन्दर देवनागरी है। इसमें अशुद्धियाँ अधिक है। इसके कुछ खास पाठ मा० जैनग्रंथमालामें मुद्रित योगसारसे मिलते हैं।
ये चार प्रतियाँ दो विभिन्न परम्पराओंको बतलाती हैं, एक परम्पराम केवल 'ब' प्रति है, और दूसरीमें 'अ', 'प' और 'झ' । 'अ' और 'प' का उद्गम एक ही स्थानसे हुआ जान पड़ता है, क्योंकि दोनोंका मुल और गुजराती अनुवाद एकसा ही है। किन्तु 'अ' प्रतिसे 'प' प्रतिके गुजराती अनुवादकी भाषा प्राचीन है। 'ब' प्रतिके विरुद्ध जो कि सबसे प्राचीन है, 'अ' और 'प' में कर्ता कारकके एकवचनमें 'अ' के स्थानमें उ पाया जाता है । अनुस्वारकी ओर बिल्कुल ध्यास नहीं है, और 'अर' के स्थानमें प्रायः ओ लिखा है ।
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