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________________ १३६ परमात्मप्रकाश योगसारका प्राकृत मूल और पाठान्तर - योगसारके सम्पादन में परम्परागत मूलका संग्रह करनेको ओर ही मेरा लक्ष्य रहा है । अपभ्रंश ग्रन्थका सम्पादन करनेमें, विशेषतया जब विभिन्न प्रतियों में स्वरभेद पाया जाता हो, लेखकोंकी अशुद्धियोंके बीचमेंसे मौलिकपाठको पृथक् करना प्रायः कठिन होता है । स्वरोंके सम्बन्ध में मैंने 'प' और 'ब' प्रतिका ही विशेषतया अनुसरण किया है। आधुनिक प्रतियोंमें इ और हमें घोखा हो जाता है, अतः मैंने मूलमें कुछ परिवर्तन भी किये हैं, और उनके लगा दिये हैं । मैंने बहुतसे पाठान्तर केवल मूलके पाठ-भेदोंपर काफ़ी प्रकाश डालनेके लिये ही दिये हैं । किन्तु माणिकचन्द्रग्रन्थमाला में मुद्रित योगसारके पाठान्तर मैंने नहीं दिये, क्योंकि जिस प्रतिके आधारपर इसका मुद्रण हुआ बताया जाता है, उससे मैंने मिलान कर लिया है; तथा किसी स्वतंत्र एवं प्रामाणिक प्रतिके आवारपर उसका सम्पादन होने में मुझे सन्देह है, जैसा कि उसमें प्रतियोंके नामके बिना दिये गये पाठान्तरोंसे मालूम होता है । सामने प्रश्नसूचक चिह्न संस्कृतछाया - निम्नलिखित कारणोंसे अपभ्रंश ग्रन्थ में संस्कृतछाया देनेके में विरुद्ध हूँ । प्रथम यह एक गलत मार्ग है, जो न तो भाषा और न इतिहास की दृष्टिसे ही उचित है । दूसरे, छाया भद्दी संस्कृतका एक नमूना बन जाती है । क्योंकि अपभ्रंशने वाक्य विन्यास और वर्णनकी शैलीने उन्नति कर ली है, जो प्राचीन संस्कृत में नहीं पाई जाती। तीसरे, उसका दुष्परिणाम यह होता है कि बहुतसे पाठक केवल छाया पढ़कर ही सन्तोष कर लेते हैं । प्राकृत ग्रन्थोंमें संस्कृतछाया देनेकी पद्धतिने भारतीय भाषाओंके अध्ययनको बहुत हानि पहुँचाई है । लोगोंने प्राकृत के अध्ययनकी ओरसे मुख फेर लिया है, मृच्छकटिक और शाकुन्तल सरीखे नाटक केवल संस्कृतके ग्रंथ बन गये हैं, जब कि स्वयं रचयिताओंने उनके मुक्य भागोंको प्राकृत में रचा था; परिणामस्वरूप आधुनिक भारतीय भाषाएं प्राकृतका भुलाकर केवल संस्कृत शब्दोंसे अपना कलेवर पुष्ट कर रही हैं । तथापि प्रकाशकके आग्रहके कारण मुझे छाया देनी पड़ी है । छाया में अपभ्रंश शब्दोंके संस्कृत शब्द देते हुए कहीं कहीं उनके वैकल्पिक शब्द भी मैंने ब्रैकेट ( कोष्टक ) में दे दिये हैं । संस्कृतका एक स्वतंत्र वाक्य समझकर छायाका परीक्षण न चाहिये, किन्तु स्मरण रखना चाहिये कि यह अपभ्रंशकी केवल छाया मात्र है । पाठकों की सुविधाके लिये सन्धिके नियमोंका ध्यान नहीं रखा गया है । अनेक स्थलोंपर मा० जैनग्रन्थमालामें मुद्रित योगसार की छायासे मेरी छायासे मेरी छाया में अन्तर है । } श्रीस्याद्वाद महाविद्यालय, काशी भाद्रपद शुक्ल ५ दशलाक्षण महापर्व, वीर सं० २४६३ Jain Education International हिन्दी अनुवादकर्ता - - कैलाशचन्द्र शास्त्री For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001524
Book TitleParmatmaprakash
Original Sutra AuthorYogindudev
AuthorA N Upadhye
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1988
Total Pages182
LanguagePrakrit, Apabhramsha, English, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Spiritual
File Size13 MB
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