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________________ परमात्मप्रकाश पं० दौलतरामजीका समय-दौलतरामजी खण्डेलवाल थे. उनका गोत्र काशलीवाल था। उनके पिता आनन्दराम थे, जन्मभूमि बसवा थी किन्तु वे जयपरमें रहते थे. तथा राजाके प्रधान कर्मचारी थे । उनकी रचनाओंको देखनेसे मालूम होता है कि वे संस्कृतके अच्छे विद्वान थे, और अपनी मातृभाषासे भी बहुत प्रेम करते थे। सम्बत् १७९५ में जब उन्होंने अपना क्रियाकोश समाप्त किया, वे किसी जयसुत राजाके मंत्री थे, और उदयपुरमें रहते थे। अपने हरिवंशपुराणमें वे लिखते हैं कि जयपुरके दीवान प्रायः जैनसम्प्रदायके होते हैं। उनके समकालीन दीवान रतनचंद्र थे। उन्होंने सं० १७९५ में क्रियाकोश समाप्त किया, और १८२९ में हरिवंशपुराण, अत: उनका साहित्यिक कार्यकाल ई० की १८वीं शताब्दीका उत्तरार्द्ध जानना चाहिये। उनकी रचनाएँ-उनके क्रियाकोशका उल्लेख पहले कर चुके हैं। जयपुरके एक धार्मिक गृहस्थ रायमल्लकी प्रार्थना पर उन्होंने सम्वत् १८२३ में पद्मपुराणकी हिन्दीटीका की थी, इसके बाद १८२४ में आदिपुराण की, १८२९ में हरिवंशपुराण और श्रीपालचरित्रका हिन्दी-गद्य में अनुवाद किया, इसके बाद ब्रह्मदेवकी संस्कृतटीकाके आधारपर परमात्मप्रकाशकी हिंदी टीका की। इसके बाद सं० १८२७ में उन्होंने पं० प्रवर टोडरमल्लजी रचित पुरुषार्थसिद्धयुपायकी अपूर्ण हिन्दीटीकाको पूर्ण किया। प्रेमीजीका मत है कि पुराणों के इन हिन्दी-अनुवादोंने जैनपरम्पराका केवल रक्षण और प्रचार ही नहीं किया किन्तु जैनसमाजके लिये ये बहुत लाभदायक सिद्ध हुए । ४ इस ग्रन्थके सम्पादन में उपयुक्त प्रतियोंका परिचय 'ए' प्रति-यह प्रति भाण्डारकर प्राच्यविद्यामन्दिर पूनासे प्राप्त हुई थी। इसमें १२४ पृष्ठ और प्रत्येक पृष्ठमें १३ लाइनें हैं । दोहोंके नीचे ब्रह्मदेव की संस्कृतटीका है जो बिल्कुल शुद्ध है। इस संस्करणकी सं० टीकाका इसीके आधारसे संशोधन किया है। 'बी' प्रति-सदलगानिवासी मेरे काका स्वर्गीय बाबाजी उपाध्येके संग्रहसे यह प्रति प्राप्त हुई थी। 'अ' प्रति की तरह यह भी देवनागरी अक्षरोंमें लिखी है। किन्तु यह अच्छी हालतमें नहीं है। यह कमसे कम २०० वर्ष प्राचीन है। मध्यमें दोहोंकी क्रम-संख्या में कुछ भूल हो गई है । अन्तिम दोहेपर ३४२ नम्बर पड़ा है। 'सी' प्रति-यह प्रति भाण्डारकर प्राच्यविद्यामन्दिर पूना की है। इसमें २१ पृष्ठ और हरएक पृष्ठमै ९ लाइनें हैं, सुन्दर देवनागरी अक्षरों में लिखी हुई है। इसमें केवल दोहे ही हैं, जो शुद्ध हैं । किन्तु लेखककी भूलसे कुछ अशुद्धियाँ रह गई हैं। 'पी' प्रति-यह प्रति जैनसिद्धान्त भवन आरा की है। इसपर लिखा है-'परमात्मप्रकाश कर्नाटक टीकासहित'। यह कन्नड़ अक्षरोंमें लिखी गई है, इसमें कुक्कुटासन मलघारि बालचन्द्रकी कन्नडटीका है, यह कोई ५० वर्ष पूर्वकी लिखी हुई है । ब्रह्म देवके मूलसे इसमें ६ पद्य अधिक है। 'क्यू' प्रति-यह प्रति भी आराके भवनकी है, इसमें भी एक कर्नाटकवृत्ति है, और लिखी भी कन्नड़ अक्षरोंमें है। यह ताड़पत्रपर है, इसके प्रारम्भका एक पत्र खो गया है । 'आर' प्रति-यह भी ताड़पत्रपर है, और आराके भवनकी है, इसमें केवल मूल परमात्मप्रकाश है । और अक्षर कन्नड़ हैं। 'एस' प्रति-जै. सि. भ. आराकी ताड़पत्रकी इस प्रतिपर 'योगीन्द्र गाथा' लिखा है, यह करीब ७५ वर्ष पुरानी है। इसमें कन्नड़ी अक्षरोंमें केवल दोहे ही लिखे हैं। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001524
Book TitleParmatmaprakash
Original Sutra AuthorYogindudev
AuthorA N Upadhye
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1988
Total Pages182
LanguagePrakrit, Apabhramsha, English, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Spiritual
File Size13 MB
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