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________________ परमात्मप्रकाश आत्माके भेद और प्राचीन ग्रन्थकार-सबसे पहले योगीन्दुने ही इन भेदोंका उल्लेख नहीं किया है। किन्तु उससे पहले कुन्दकुन्दने ( ईस्वी सन् का प्रारम्भ ) अपने मोक्खपाहुड़में और पूज्यपादने ( ईसाकी पांचवीं शताब्दीके अन्तिम पादके लगभग ) समाधिशतकमें इनकी चर्चा की है। जोइन्दुके बाद अमृतचन्द्र, गुणभद्र, अमितगति आदि अनेक ग्रन्थकारोंने आत्माकी चर्चा करते समय इस भेदको दृष्टिमें रक्खा है । अन्य दर्शनोंमें इस भेदकी प्रतिध्वनि-यद्यपि प्राथमिक वैदिक साहित्यमें आत्मवादके दर्शन नहीं होते किन्तु उपनिषदों में इसकी विस्तृत चर्चा पाई जाती है। उस समय यजन-याजन आदि वैदिक कृत्यमें संलग्न पुरोहितोंके सिवा साधुओंका भी एक सम्प्रदाय था, जो अपने जीवनका बहुभाग इस आत्मविद्याके चिन्तनमें ही व्यतीत करता था। उपनिषदों तथा बादके साहित्यमें इस आत्म-विद्याके प्रति बड़ा अनुराग दर्शाया गया । तैत्तिरीयोपनिषद्। पाँच आवरण बतलाये है-अन्नरसमय, प्राणमय, मनोमय, विज्ञानमय और आनन्दमय । इनमेंसे प्रत्येकको आत्मा कहा है । कठोपनिषद्- आत्माके तीन भेद किये है-ज्ञानात्मा, महदात्मा और शान्तात्मा । छान्दोग्य ३०८, ७-१२ को दृष्टिमें रखकर डॉयसन ( Deusson ) ने आत्माकी तीन अवस्थाएँ बतलाई है-शरीरात्मा, जीवात्मा और परमात्मा। अनेक स्थलोंपर उपनिषदोंमें आत्मा और शरीरको जुदा जुदा बतलाया है । न्याय-वैशेषिकका जीवात्मा और परमात्माका भेद तो प्रसिद्ध ही है। इसके बाद, रामदास आत्माके चार भेद करते हैं-१ जीवात्मा, जो शरीरसे बद्ध हैं, २ शिवात्मा, जो विश्वव्यापी है, ३ परमात्मा जो विश्वके और उससे बाहर भी व्याप्त है, ४ और निर्मलात्मा, जो निष्क्रिय और ज्ञानमय है। किन्तु रामदासका कहना है कि अन्ततोगत्वा ये सब सर्वथा एक ही है। आत्मिक-विज्ञान-आत्म-ज्ञानसे संसार भ्रमणका अन्त होता है। आत्मा उसी समय आत्मा कहा जाता है, जब वह कर्मों से मुक्त हो जाता है। शुद्ध आत्माका ध्यान करनेसे मुक्ति शीघ्र मिलती है । आत्मज्ञानके बिना शास्त्रोंका अध्ययन आचारका पालन आदि सब कृत्य-कर्म बेकार हैं। आत्माका स्वभाव-यद्यपि आत्मा शरीरमें निवास करता है, किन्तु शरीरसे बिल्कुल जुदा है। छः द्रव्यों में केवल यही एक चेतन द्रव्य है, शेष जड़ है। यह अनन्त ज्ञान और अनन्त आनन्दका भण्डार है। अनादि और अनन्त है; दर्शन और ज्ञान उसके मुख्य गुण हैं: शरीरप्रमाण है। मक्तावस्थामें उसे शुन्य भी कह सकते हैं, क्योंकि उस समय वह कर्मबन्धनसे शून्य ( रहित ) हो जाता है । यद्यपि सब आत्माओंका अस्तित्व जुदा जुदा है, किन्तु गुणोंकी अपेक्षा उनमें कोई अन्तर नहीं है; सब आत्माएं अनन्तज्ञान, अनन्तदर्शन, अनन्तसूख और अनन्तवीर्यके भण्डार हैं । अशुद्ध दशामें उनके ये गण कर्मोसे ढंके रहते हैं। परमात्माका स्वभाव-तीनों लोकोंके ऊपर मोक्ष स्थानमें परमात्मा निवास करता है । वह शाश्वत ज्ञान और सुखका आगार है, पुण्य और पापसे निलिप्त है। केवल निर्मल ध्यानसे ही उसकी प्राप्ति हो सकती है। जिस प्रकार मलिन दर्पणमें रूप दिखाई नहीं देता, उसी तरह मलिन चित्तमें परमात्माका ज्ञान नहीं होता। परमात्मा विश्वके मस्तकपर विराजमान है, और विश्व उसके ज्ञानमें, क्योंकि वह सबको जानता है। परमात्मा अनेक है, और उनमें कोई अन्तर नहीं है । वह न तो इन्द्रि यगम्य है, और न केवल शास्त्राम्याससे ही हम उसे जान सकते हैं। वह केवल एक निर्मल ध्यानका विषय है। ब्रह्म, परब्रह्म, शिव, शान्त आदि उसीके नामान्तर है ।.... कर्मोंका स्वभाव-राग, द्वेष आदि मानसिक भावोंके निमित्तसे जो परमाणु आत्मासे सम्बद्ध हो जाते हैं, उन्हें कर्म कहते हैं। जीव ओर कर्मका सम्बन्ध अनादि है। कर्मों के कारण हो आत्माकी अनेक दशायें Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001524
Book TitleParmatmaprakash
Original Sutra AuthorYogindudev
AuthorA N Upadhye
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1988
Total Pages182
LanguagePrakrit, Apabhramsha, English, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Spiritual
File Size13 MB
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