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प्रस्तावना
होती है; कर्मोके कारण ही आत्माको शरीरमें रहना पड़ता है। ये कर्म-कलङ्क ध्यानरूपी अग्निमें जलकर भस्म हो जाते हैं।
आत्मा और परमात्मा-आत्मा ही परमात्मा है, किन्तु कर्मबन्धके कारण वह परमात्मा नहीं बन सकता। ज्यों ही वह अपनेको जान लेता है, परमात्मा बन जाता है। स्वाभाविक गुणोंकी अपेक्षासे आत्मा और परमात्मामें कोई अन्तर नहीं है। जब आत्मा-कर्मबन्धनसे मुक्त हो जाता है, उसके आनन्दका पारावार नहीं रहता।
उपनिषदोंमें आत्मा और ब्रह्म-उपनिषदोंमें ब्रह्म एक विश्वव्यापी तत्त्व माना गया है; समस्त जीवात्माएं उसीके अंश है । बहुतसे स्थलोंपर आत्मा और ब्रह्म शब्दका एक ही अर्थमें प्रयोग किया है। जैसे लोहेका एक टुकड़ा पृथ्वीके गर्भ में दब जानेके बाद पृथ्वीमें हो मिल जाता है, उसी तरह प्रत्येक जीवात्मा ब्रह्ममें समा जाता है। अविद्याके प्रभावसे प्रत्येक आत्मा अपनेको स्वतन्त्र समझता है, किन्तु वास्तवमें हम सब ब्रह्मके ही अंश है । प्रारम्भमें यह ब्रह्म एक शक्तिशाली ऋचाके रूपमें माना जाता था, किन्तु बादमें यह उस महान् शक्तिका प्रतिनिधि बन गया, जो विश्वको उत्पन्न करती और नष्ट करती है। यद्यपि बार बार ब्रह्मको निर्गुण कहा है किन्तु इसमें सन्देह नहीं कि उसे एक स्वतन्त्र अनन्त और सनातन तत्त्वके रूपमें माना है, जिससे प्रत्येक वस्तु अपना अस्तित्व प्राप्त करती है। इस तरह उपनिषदोंमें ब्रह्म ही आत्मा है ।
योगीन्दुके परमात्माकी उपनिषदोंके ब्रह्मसे तुलना-'ब्रह्म' शब्द वैदिक है, और उपनिषदोंमें ब्रह्मको एक और अद्वितीय लिखा है। जोईन्दुने इस शब्दको वैदिक साहित्यसे लिया है, और अपने ग्रन्थमें उसका बार बार प्रयोग किया है “अहिंसा भूतानां जगति विदितं ब्रह्म परमम्" लिखकर स्वामी समन्तभद्रने भी 'ब्रह्म' शब्दका व्यापक अर्थ में प्रयोग किया है। उपनिषदोंमें परमात्माकी अपेक्षा ब्रह्म शब्द अधिक आया है यद्यपि 'नृसिंहोत्तरतापनी' आदिग्रन्थों में दोनोंको एकार्थवाची बतलाया है । उपनिषदोंका ब्रह्म एक है किन्तु, जोईन्दु बहुतसे ब्रह्म मानते हैं। जैनधर्मके अनुसार परमात्मा कृतकृत्य हो जाता है. और उसे कुछ करना शेष नहीं रहता; वह विश्वको केवल जानता और देखता है, क्योंकि जानना और देखना उसका स्वभाव है। किन्तु, उपनिषदोंका ब्रह्म प्रत्येक वस्तुका उत्पादक और आषय है। यद्यपि उपनिषदोंके ब्रह्म और जैनों के परमात्मामें बहुतसो समानताएं हैं, किन्तु उनके अर्थमें भेद है। उदाहरण के लिये, उपनिषदोंमें 'स्वयंभ' शब्दका 'स्वयं पैदा होनेवाला' और 'स्वयं रहनेवाला' है, किन्तु जैनधर्मके अनुसार 'स्वयं परमात्मा होनेवाला' है।
योगीन्दुको एकता-योगीन्दुके परमात्मा और उपनिषदोंके ब्रह्ममें उपर्युक्त अन्तर होते हुए भी, योगीन्दु बिल्कुल उपनिषदोंके स्वरमें परमात्माओंके एकत्वकी चर्चा करते हैं. और परमात्मपदके अभिलाषियोंसे निवेदन करते हैं कि वे परमात्माओंके भेद-कल्पना न करें क्योंकि उनके स्वरूपमें कोई अन्तर नहीं है। परन्तु उपनिषदोंका एकत्व वास्तविक है, और जोईन्दुका केवल आपेक्षिक । किन्तु जब योगीन्दु आत्मा और परमात्मा के एकत्वकी चर्चा करते हैं तो वे उसका पूर्णतया समर्थन करते हैं, क्योंकि जैनधर्मके अनुसार आत्मा परमात्मा है; कर्मबन्धके कारण उसे परमात्मा न कहकर आत्मा कहते हैं । सम्पूर्ण आत्माओंकी यह समानता जैनधर्मके प्राणिमात्र प्रति मानसिक, वाचनिक और कायिक अहिंसावादके बिल्कुल अनुरूप है, इस प्रसंगमें सांख्योंकी तरह जैनौको भी सत्कार्यवादी कहा जा सकता है। उपनिषदोंका ब्रह्म सर्वथा एक और अद्वैत है, किन्तु जैनोंके परमात्मामें यह बात नहीं है। जैनधर्म संसारको भेददृष्टिसे देखता है, और उसका आत्मा तप और ध्यानके मार्गपर चलकर परमात्मा बन जाता है, किन्तु उपनिषद् संसारको एक ब्रह्मके रूपमें ही देखते हैं।
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