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________________ प्रस्तावना परमात्मप्रकाशके दार्शनिक मन्तव्य और गढ़वाद । व्यवहार और निश्चय - भारतीय साहित्य के इतिहास में यह एक निश्चित सिद्धान्त है कि ग्रन्थका शुद्ध अर्थ करनेमें प्रायः टीकाकार प्रमाण माने जाते हैं। ऋग्वेदके व्याख्याकार सायन के सम्बन्ध में जो बात सत्य है, परमात्मप्रकाशके टीकाकार ब्रह्मदेव के सम्बन्ध में वह बात और भी अधिक सत्य है । ग्रन्थको व्याख्या करते हुए, ब्रह्मदेवने बार बार निश्चयनय और व्यवहारनयका अवलम्बन लिया है । यह बहुत संभव है कि उन्होंने कुछ अत्युक्ति की हो, किन्तु ग्रन्थके कुछ स्थलोंसे स्पष्ट है कि ये दोनों दृष्टियाँ जोइन्दुको भी इष्ट थीं । अतः परमात्मप्रकाशका अध्ययन करते समय हम इन दोनों नयोंकी उपेक्षा नहीं कर सकते । ११३ इस प्रकारके नयोंकी आवश्यकता - भारतवर्ष में एक ओर धर्म शब्दका अर्थ होता है -कठोर संयमके धारी महात्माओं के आध्यात्मिक अनुभव, और दूसरी ओर उन आध्यात्मिक सिद्धान्तोंके अनुयायी समाजका पथ-प्रदर्शन करनेवाले व्यावहारिक नियम । अर्थात् घर्मके दो रूप हैं एक संद्धान्तिक या आध्या त्मिक और दूसरा व्यावहारिक या सामाजिक | इन दो रूपोंके कारण ही इस प्रकारके नयोंकी आवश्यकता होती है; और जैनधर्ममें तो — जहाँ भेदविज्ञान के बिना सत्यकी प्राप्ति ही नहीं होती — अपना खास स्थान रखते हैं । व्यवहारनय वाचाल है और उसका विषय है कोरा तर्कवाद, जब कि निश्चयनय मूक है, और उसका विषय है अन्तरात्मासे स्वयं उद्भूत होनेवाले अनुभव जैनधर्मानुसार गृहस्थधर्म और मुनिधर्म परस्पर में एक दूसरे के आश्रित हैं, और मोक्षप्राप्तिमें एक दूसरेकी सहायता करते हैं । यही दशा व्यवहार और निश्चयकी है; जैसे प्रत्येक गृहस्थ संन्यास लेता है, और अपने आत्मिक लक्ष्यको पहचानता है, उसी तरह व्यवहारनय निश्चयकी प्राप्ति के लिये आत्मसमर्पण कर देता है। I अन्य शास्त्रोंमें इस प्रकारको दृष्टिय - मुण्डकोपनिषद् ( १, ४-५ ) में विद्याके दो भेद किये हैं- अपरा और परा । पहलीका विषय वेदज्ञान है, और दूसरोका शाश्वत ब्रह्मज्ञान । ये भेद सत्यके तार्किक और आनुभविकज्ञानके जैसे ही हैं, अतः इनका व्यवहार और निश्चय के साथ तुलना की जा सकती है । बौद्धघमें भी सत्यके दो भेद किये हैं संवृतिसत्य या व्यवहारसत्य और परमार्थसत्य । शङ्कराचार्य भी व्यवहार और परमार्थं दृष्टियों को अपनाते हैं । धर्मको कुछ आधुनिक परिभाषाओं में भी इस प्रकारके भेदकी झलक पाई जाती हैं, जिनमें से विलियम जेम्स 'सामाजिक और व्यक्तिगत' इन दो दृष्टियोंको मानते हैं । नयोंका सापेक्ष महत्त्व - व्यवहारनय तभीतक लाभदायक और आवश्यक है जबतक वह निश्चय की ओर ले जाता है | अकेला व्यवहार अपूर्ण है, और कभी पूर्ण नहीं हो सकता। बिल्लोकी उपमा तभोतक काम दे सकती है, जबतक हमने शेर को नहीं देखा। दोनों नयोंका सापेक्ष महत्व बतलाते हुए अमृतचन्द्र लिखते हैं--व्यवहार उन्होंके लिये उपयोगी हो सकता है जो आध्यात्मिक जीवनको पहली सीढ़ीपर रेंग रहे है । किन्तु, जो अपने लक्ष्यको जानते हैं और अपने चैतन्य स्वरूपका अनुभव करते हैं, उनके लिये व्यवहार बिल्कुल उपयोगी नहीं है । आत्माके तीन भेद - आत्माके तीन भेद हैं, बहिरात्मा, अन्तरात्मा और परमात्मा । शरीरको आत्मा समझना अज्ञानता है, अतः एक ज्ञानी मनुष्यका कर्तव्य है कि वह अपनेको शरीरसे भिन्न और ज्ञानमय जाने, और इस तरह आत्म ध्यान में लीन होकर परमात्माको पहचाने । समस्त बाहिरी वस्तुओंका त्याग करने पर अन्तरात्मा ही परमात्मा होजाता है । १ समयसार गाथा १२ समयसार कलश । ५० १५ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001524
Book TitleParmatmaprakash
Original Sutra AuthorYogindudev
AuthorA N Upadhye
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1988
Total Pages182
LanguagePrakrit, Apabhramsha, English, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Spiritual
File Size13 MB
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