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________________ ११२ परमात्मप्रकाश मेरा मत है कि योगीन्दु कुन्दकुन्द और पूज्यपादके ऋणी है। योगीन्दुकृत तीन आत्माओंका वर्णन (१,१२१ ४) मोक्खपाहुड़ (४-८) से बिल्कुल मिलना है । सम्यग्दृष्टि और मिथ्यादृष्टिकी परिभाषाएँ भी ( १,७६७७) साधारणतया कुन्दकुन्दके मोक्खपाहुड़ ( १४-५ ) में दत्त परिभाषाओं जैसी ही है, और ब्रह्मदेवने इन दोहों की टीकामें उन गाथाओंको उद्धृत भी किया है । इसके सिवा नीचे लिखी समानता भी ध्यान देने योग्य है-मो० पा० २४ और प० प्र० १, ८६; मो० पा० ३७ और प० प्र०२, १३; मो० पा० ५१ और प. प्र० २, १७६ ७५; मो० पा० ६६-६९ और प० प्र० २, ८१ आदि। मोक्खपाहुड़ आदिको संस्कृतटीकामें श्रुतसागरसूरिका परमात्मप्रकाशसे दोहे उद्धृत करना भी निरर्थक नहीं है। इस प्रकार सक्ष्म छानबीनसे यह स्पष्ट हो जाता है कि योगीन्दुने कुन्दकुन्दसे बहुत कुछ लिया है। पूज्यपादके समाधिशतक और परमात्मप्रकाशमें घनिष्ठ समानता है। मेरे विचारसे योगीन्दुने पूज्यपादका अक्षरशः अनुसरण किया है। विस्तारके डरसे यहाँ कुछ समानताओंका उल्लेखमात्र करता है। स० श० ४-५ और प० प्र० १.११-१४; स. श० ३१ और प० प्र० २, १७५, १. १२३*२; स० श० ६४६६ और प० प्र०२, १७८-८०; स० श० ७० और प० प्र० १,८०, स० श० ७८ और प० प्र० २, ४-६*१; स० श० ८७-८८ और १० प्र० १, ८२ आदि । इन समानताओंके सिवा इन दोनों में विचारसाम्य भी बहुत है किन्तु दोनोंकी शैली में बड़ा अन्तर है। वैयाकरण होनेके कारण 'अर्द्धपात्रालाचवं पुत्रोत्सवं मन्यन्ते वैयाकरणाः' के अनुसार पूज्यपादके उद्गार संक्षिप्त, भाषा परिमार्जित और भाव व्यवस्थित है, किन्तु योगीन्दुकी कृति-जैसा कि पहले कहा जा चुका है-पुनरावृत्ति और इधर उधरको बातोंसे भरी है। पूज्यपादको शैलीने उनकी कृतिको गहन बना दिया था, और विद्वान् लोग ही उससे लाभ उठा सकते थे, संभवतः इसो लिये योगोन्दुने समाधिशतकके मन्तव्योंको प्रचलित भाषा और जनसाधारणको शैलीमें निबद्ध किया था। योगीन्दुकी इस रचनाने काफी ख्याति प्राप्त की है, और जयसेन, श्रुतसागर और रत्नकीति सरीखे टीकाकारोंने उससे पद्य उद्धृत किये थे । देवसेनके तत्त्वसार और परमात्मप्रकाशमें भी काफी समानता है। देवसेनके ग्रन्थोंपर अपभ्रंशका प्रभाव है; अपने भावसंग्रहमें उन्होंने कुछ अपभ्रंश पद्य भो दिये हैं, और 'बहिरप्पा' ऐसे शब्दोंका प्रयोग किया है । इन कारणोंसे मेरा मत है कि देवसेनने योगीन्दुका अनुसरण किया है। योगीन्दु, काण्ह और सरह-काण्ह और सरह बौद्ध-गूढ़वादी थे। उनके ग्रन्थ उत्तरकालीन महायान सम्प्रदायसे खासकर तंत्रवादसे सम्बन्ध रखते है, और शेव योगियों के साथ उनकी कुछ परम्पराएँ मिलतीजुलती है। काण्हका समय डा० शाहीदुल्ला ई० ७०० के लगभग और डा० एस० के० चटर्जी ईसाकी बारहवीं शताब्दीका अन्त बतलाते हैं। सरह ई० १००० के लगभग विद्यमान थे। इन दोनों ग्रन्थकारोंके दोहाकोशोंका विषय परमात्मप्रकाशके जैसा हो है। यद्यपि उनके ग्रन्थोंका नाम 'दोहा-कोश' है, किन्तु परमात्मप्रकाशकी तरह उनमें केवल दोहा ही नहीं हैं, बल्कि अनेक छन्द हैं। प्रान्त-भेदके कारण उत्पन्न कुछ विशेषताओंका छोड़कर उनकी अपभ्रंश भी योगीन्दुके जैसी ही है। गढ़वादियोंके विचार और शब्द प्रायः समान होते हैं, जो विभिन्न धर्मोंके गढ़वादके ग्रन्थों में देखनेको मिलते हैं। काण्ह और सरहने अपने पद्योंमें प्रायः अपने नाम दिये हैं, पर योगोन्दुने ऐसा नहीं किया । तुकाराम आदि महाराष्ट्र सन्तोंने भी अपनी रचनाओं में अपने नाम दिये हैं ओर कर्नाटकके शव वचनकारोंने अपनी मुद्रिकाओंका उल्लेख किया है। उदाहरणके लिये 'वसवण्ण' को मुद्रिका 'कूडल-संगम-देव' है, और गङ्गम्माकी 'गङ्गेश्वरलिङ्ग'। विशेषकर सरहके दोहा-कोशके बहतसे विचार, वाक्याश, तथा कहनेकी शैलियाँ परमात्मप्रकाशके जैसी ही हैं। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001524
Book TitleParmatmaprakash
Original Sutra AuthorYogindudev
AuthorA N Upadhye
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1988
Total Pages182
LanguagePrakrit, Apabhramsha, English, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Spiritual
File Size13 MB
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