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________________ प्रस्तावना दूसरा अर्थ अभीष्ट है। जहाँतक हम जानते हैं विरहाङ क-जिसे प्रो० एच० डी० वेलणकर ईसाकी नवमी शताब्दीसे पहलेका बतलाते हैं-दोहेकी परिभाषा करनेवालोंमें सबसे प्राचीन छन्दकार है । बादके छन्दकारोंने दोहेके भेद भी किये हैं। आध्यात्मिक सहिष्णुता-अध्यात्मवादियोंमें एक दूसरेके प्रति काफी सहिष्णुता होती है, और इसलिये-जैसा कि प्रो० 'रानडेका कहना है-सब युगों और सब देशोंके अध्यात्मवादी एक अनन्त और स्वर्गीय समाजकी सुष्टि करते हैं। वे किसी भी दार्शनिक आधारपर अपने गढ़वादका निर्माण कर सकते है, किन्तु शब्दों के अन्तस्तलमें घुसकर वे सत्यकी एकताका अनुभव करते हैं। योगीन्दु एक जैन गूढ़वादी है, किन्तु उनकी विशालदृष्टिने उनके ग्रन्थमें एक विशालता ला दी है, और इसलिये उनके अधिकांश वर्णन साम्प्रदायिकतासे अलिप्त है। उनमें बौद्धिक सहनशीलता भी कम नहीं है। वेदान्तियोंका मत है कि आत्मा सर्वगत है, मीमांसकोंका कहना है कि मुक्तावस्थामें ज्ञान नहीं रहता; जैन उसे शरीरप्रमाण बतलाते हैं, और बोद्ध कहते हैं कि वह शून्यके सिवा कुछ भी नहीं । किन्तु योगीन्दु इस मतभेदसे बिल्कुल नहीं घबराते वे जैन अध्यात्मके प्रकाशमें नयोंकी सहायतासे शाब्दिक-जालका भेदन करके सब मतोंके वास्तविक अभिप्रायको समझाते हैं । यद्यपि अन्य दर्शनकार उनकी इस व्याख्याको स्वीकार न कर सकेंगे फिर भी यह शैली एक शान्त अध्यात्मवादीके रूपमें उन्हें हमारे सामने खड़ा कर देती है। योगोन्दु परमात्माकी एक निश्चित रूपरेखा स्वीकार करते हैं किन्तु उसे एक निश्चित नामसे पुकारनेपर जोर नहीं देते । वे अपने परमात्माको जिन, ब्रह्म, शान्त, शिव, बुद्ध आदि संज्ञाएं देते हैं । इसके सिवा अपना काम चलानेके लिये वे अजैन शब्दावलीका भी प्रयोग करते हैं । १ अ० २२ दो० में वे धारणा, यन्त्र, मन्त्र मण्डल मुद्रा आदि शब्दोंका उपयोग करते हैं और कहते है कि परमात्मा इन सबसे अगोचर है । १, ४१ तथा २, १०७ में उनकी शैलो वेदान्तसे अधिकतर मिलती है । २,४६१ जिसे ब्रह्मदेव तथा अन्य प्रतियाँ प्रक्षेपक बतलाते हैं, गीताके दूसरे अध्यायके ६९ वें श्लोकका स्मरण कराते है । २, १७० वें दोहेमें 'हंसाचार' शब्द आता है और ब्रह्मदेव 'हंस' शब्दका अर्थ परमात्मा करते हैं। यह हमें उपनिषदोंके उन अंशोंका स्मरण कराता है, जिनमें और परमात्माके अर्थमें हंस शब्दका प्रयोग किया है । सारांश यह है कि ग्रंथके कुछ भागको छोड़कर-जिसमें जैन अध्यात्मका पारिभाषिक वर्णन किया है-शेष भागको अध्यात्म-शास्त्रका प्रत्येक विद्यार्थी प्रेमपूर्वक पढ़ सकता है। जैन-साहित्यमें योगीन्दुका स्थान-एक गूढ़वादीके लिये यह आवश्यक नहीं कि वह बहुत बड़ा विद्वान् हो, और न वर्षोंतक व्याकरण और न्यायमें सिर खपाकर वह सुयोग्य लेखक बननेका ही प्रयत्न करता है, किन्तु मानव-समाजको दुःखी देख, मात्म साक्षात्कारका अनुभव ही उसे उपदेश देने के लिये प्रेरित करता है, और व्याकरण आदिके नियमोंका विशेष विचार किये बिना जनताके सामने वह अपने अनुभव रखता है। अतः उच्चकोटिकी रचनाओंमें प्रयुक्त की जानेवाली संस्कृत तथा प्राकृत भाषाको छोड़कर योगोन्दुका उस समयको प्रचलित भाषा अग्नभ्रंशको अपनाना महत्त्वसे खाली नहीं है। महाराष्ट्रके ज्ञानदेव, नामदेव, एकनाथ, तुकाराम और रामदासने मराठीमें और कर्नाटक के बसवन्न तथा अन्य वीरशैव वचनकारोंने कन्नड़में बड़े अभिमानके साथ अपने अनुभव लिखे हैं, जिससे अधिक लोग उनके अनुभवोंसे लाभ उठा सकें। प्राचीन ग्रन्थकारोंने जो कुछ संस्कृत और प्राकृतमें लिखा था उसे हो योगीन्दुने बहत सरल तरीकेसे अपने समयकी प्रचलित भाषामें गंथ दिया है। प्राचीन जैन-साहित्यके अपने अध्ययनके आधारपर १ वेलणकर और रानडे, भारतीयदर्शन का इतिहास जिल्द ७, महाराष्ट्रका आध्यात्मिक गूढ़वाद, भमिका पष्ठ २॥२ माझी मराठी भाषा चोखडो। परब्रह्मों फालली गाढी ॥ ३ ये वचन कन्नड़ गद्य के सुन्दर नमूने है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001524
Book TitleParmatmaprakash
Original Sutra AuthorYogindudev
AuthorA N Upadhye
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1988
Total Pages182
LanguagePrakrit, Apabhramsha, English, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Spiritual
File Size13 MB
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