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परमात्मप्रकाश
उपमाओंसे स्पष्ट करता है। ब्रह्मदेवने भी "अत्र भावनाग्रन्थे समाधिशतकवत् पुनरुक्तदूषणं नास्ति" आदि लिखकर पुनरुक्तिका समर्थन किया है।
उपमाएं और उनका उपयोग-अपने उपदेशको रोचक बनानेके लिये एक धर्मोपदेष्टा उपमा रूपक आदिका उपयोग करता है। यदि वे ( उपमा रूपक आदि ) दैनिक व्यवहारकी वस्तुओंसे लिये गये हों तो पाठकों और श्रोताओंको प्रकृत विषयके समझने में बहुत सुगमता रहती है। यही कारण है कि भारतीय न्यायशास्त्रमें दृष्टान्तको इतना महत्त्व दिया गया है। विषयकी गृढ़ताके कारण एक धर्मोपदेष्टा या ताकिक की अपेक्षा एक गूढ़वादीको इन सब चीजोंका उपयोग करना विशेष आवश्यक होता है। दृष्टान्त आदिकी सहायतासे वह अपने अनुभवोंको पाठकों तथा श्रोताओं तक पहुंचानेमें समर्थ होता है। गूढ़वादीकी वर्णनशैलीमें अन्य शैलियोंसे अन्तर होनेका यह अभिप्राय नहीं है कि उसके अनुभव अप्रामाणिक है, किन्तु इससे यही प्रमाणित होता है कि वे अनुभव शब्दों द्वारा व्यक्त नहीं किये जा सकते । अतः गढ़वादके ग्रन्थ उपमा रूपक आदिसे भरे होते हैं । 'योगीन्दु' भी इसके अपवाद नहीं हैं, उनके परमात्मप्रकाशमे दृष्टान्तोंकी कमी नहीं है। उनमेंसे कुछ तो बड़े ही प्रभावक है ।
परमात्मप्रकाशके छन्द---ब्रह्मदेवके मूलके अनुसार परमात्मप्रकाशमें सब ३४५ पद्य हैं, उनमें ५ गाथाएं एक स्रग्धरा और एक मालिनी है किन्तु इनकी भाषा अपभ्रंश नहीं है। तथा एक चतुष्पादिका और शेष ३३७ अपभ्रंश दोहे हैं। परमात्मप्रकाशमें कहीं भी 'दोहा' शब्द नहीं आया, किन्तु योगीन्दके दूसरे ग्रन्थ योगसारमें दो बार आया है । दोहेकी दोनों पंक्तियाँ बराबर होती हैं। प्रत्येक पंक्तिमें दो चरण होते हैं । प्रथम चरणमें १३ और दूसरे में ११ मात्राएँ होती हैं । किन्तु जब हम दोहेको पढ़ते हैं या उसे गानेकी कोशिश करते हैं, तो ऐसा मालूम होता है कि हमें १४ मात्राओंकी आवश्यकता है-प्रत्येक चरणको अन्तिम मात्रा कुछ जोरसे बोली जाती है। अतः यह कहना उपयुक्त होगा कि दोहेकी प्रत्येक पंक्तिके चौदह और बारह मात्राएं होती हैं किन्तु परमात्मप्रकाशके इकतीस दोहोंमें प्रत्येक पंक्तिके चरणमें अन्तिम वर्णका गुरु उच्चारण करनेपर भी तेरह मात्राएं ही होती हैं । दोहेकी प्रत्येक पंक्तिमें चौदह और बारह मात्राए होती है, यह बात विरहाङ्क' की निम्नलिखित परिभाषासे भी स्पष्ट है।
तिणि तुरंगा णेउरओ वि-प्पाइनका कण्णु । दुवहअ-पच्छद्ध वि तह वद लक्षण ण अण्णु ॥४, २७॥ तुरंग = ४ मात्राएँ, णेउर = १ गुरु, पाइक्क -४ मात्रा और कण्ण = २ गुरु, इस प्रकार एक पंक्तिमें
१२ मात्राएँ होती हैं। अपभ्रंश 'र' और 'ओ' प्रायः ह्रस्व भी होते हैं, अतः उक्त दहिके अक्षरशः विभाजन करनेसे प्रकट होता है कि १३ और ११ मात्राएँ होती हैं। कविदर्पण, प्राकृतपिंगल, छन्दकोश आदि छन्दशास्त्र बतलाते हैं कि दोहेकी प्रत्येक पंक्तिमें १३ और ११ मात्राएं होती हैं, किन्तु हेमचन्द्र १४ और १२ ही बताते हैं। सारांश यह है कि विरहाङ्क और हेमचन्द्र दोहाके श्रुतिमाधुर्यका विशेष ध्यान रखते है, जब कि अन्य छन्दशास्त्रज्ञ अक्षर गणनाके नियमका पालन आवश्यक समझते हैं । विरहाङ्कने दोहेका लक्षण अपभ्रंश-भाषामें रचा है, और रुद्रट कवि संस्कृत तथा अपभ्रंश भाषाके श्लेषोंको दोहाछन्दमें लिखते हैं, इससे प्रमाणित होता है कि दोहा अपभ्रंश भाषाका छन्द है।
यहाँ 'दोहा' शब्दकी व्युत्पत्तिके सम्बन्ध में विचार करना अनुपयुक्त न होगा। जोइन्दु इसे दोहा कहते हैं किन्तु विरहांक इसका नाम 'दुवहा' लिखते हैं। यदि दोहाका मूल संस्कृत है तो यह 'विषा' शब्दसे बना है, जो बतलाता है कि दोहाको प्रत्येक पंक्ति दो भागोंमें बँटी होती है, या दोहाछन्दमें एक ही पंक्ति दो बार आती है। विरहांकका 'दो पाआ भण्णइ दुवहउ' लिखना बतलाता है कि उसे
१. एच. डी. वेलनकर-विरहांकका वृचजाति समुच्चय'
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