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________________ प्रस्तावना ماه २१४ द्वितीय अधिकार-मूल दोहे स्थ० बा० प्र० ५ २१९ इससे पता चलता है कि परमात्मप्रकाशको जो प्रति ब्रह्मदेवको मिली थी, काफी विस्तृत थी। जिन पांच दोहोंके ( १,२८-३२ ) योगीन्दुरचित होने में उन्हें सन्देह था, उनको उन्होंने अपने क्षेपक माना है। किन्तु जिन आठ दोहोंको उन्होंने मूलमें सम्मिलित नहीं किया, संभवतः पाठकों के लिये उपयोगी जानकर ही उन्होंने उनकी टीका की है। ब्रह्मदेवको प्राप्त प्रति कितनी बड़ी थी, यह निश्चित रीतिसे नहीं बतलाया जा सकता । किन्तु यह कल्पना करना संभव है कि उसमें और भी अधिक दोहे थे, जिन्हें ब्रह्मदेव अपने दोनों प्रकारके प्रक्षेपकोंमें न मिला सके। बालचन्द्रका मूल-मलधारी बालचन्द्रने परमात्मप्रकाश कन्नड़ में एक टीका लिखी है। आरम्भ में वे कहते हैं कि मैंने ब्रह्मदेवकी संस्कृतटीकासे सहायता ली है। बालचन्द्र के मूलमें ६ पद्य अधिक है। ब्रह्मदेवका अनुसरण करनेपर भी बालचन्द्रको प्रतिमें ६ अधिक पद्य क्यों पाये जाते हैं ? इस प्रश्नके दो ही समाधान हो सकते है। या तो बालचन्द्र के बाद ब्रह्म देवकी प्रतिमेंसे टीकासहित कुछ पद्य कम कर दिये गये, या बालचन्द्र के सामने कोई अधिक पद्यवाली प्रति उपस्थित थी, जिससे उन्होंने अपनी कन्नड़ टीकामें ब्रह्मदेवकी संस्कृतवृत्तिका अनुसरण करनेपर भी कुछ अधिक पद्य सम्मिलित कर लिये । प्रथम समाधान तो स्वीकार करने योग्य नहीं मालूम होता, क्योंकि टीकासहित कुछ पद्योंका निकाल देना संभव प्रतीत नहीं होता । किन्तु दूसरा समाधान उचित जंचता है। वे ६ पद्य इस प्रकार है१-२-पहला और दूसरा अधिक पद्य २, ३६ के बाद आते हैं। कायकिलेसें पर तणु भिज्जइ विण उवसमेण कसाउ | खिज्जइ । ण करहिं इंदियमणह णिवारणु उगतवो वि ण कोक्खह कारण ।। अप्पसहावे जासु र णिच्चुववासउ तासु । बाहिरदव्वे जासु रइ भुक्खुमारि तासु ।। ३-यह पद्य २,१३४ के बाद 'उक्तं च' करके लिखा है अरे जिउ सोक्खे मग्गसि धम्मे अलसिय । पक्खे विण केव उड्डण मग्गेसि मेंडय दंडसिय (? || ४-२,१४० के बाद यह दोहा आता है पण्ण ण मारिय सोयरा पुणु छट्टउ चंडाल । माण ण मारिय अपप्णउ केव छिज्जइ संसारु ।। ५-२,१५६ के बाद यह दोहा 'प्रक्षेपकम्' करके लिखा है-- अप्पह परह परंपरह परमप्प उह समाणु । पर करि परु करि परु जि करि जइ इच्छइ णिव्वाणु ।। ६--२,२०३ के बाद, संभवतः असावधानोके कारण इसपर नम्बर नहीं डाला गया है, किन्तु टीका की हैअन्तु वि गंतुवि तिहुवगहें सासयसोक्खसहाउ। तेत्थु जि सयलु वि कालु जिय णिवसइ लद्धसहाउ ।। 'त' 'क' और 'म' 'प्रति अन्य प्रतियोंकी अपेक्षा बहत संक्षिप्त है। ब्रह्मदेवके मूलके साथ उनकी तुलना करनेपर उनमें निम्नलिखित दोहे नहीं पाये जाते-- प्रथम अधिकारमें-२-११, १६, २०, २२, २८-३२, ३८, ४१, ४३, ४४, ४७, ६५, ६५*१, ६६, ७३, ८०, ८१, ९१, ९२, ९९, १००, १०४, १.६,१०८, ११०, ११८, ११९, १२१ १२३.२-३। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001524
Book TitleParmatmaprakash
Original Sutra AuthorYogindudev
AuthorA N Upadhye
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1988
Total Pages182
LanguagePrakrit, Apabhramsha, English, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Spiritual
File Size13 MB
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