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________________ परमात्मप्रकाश द्वितीय अधिकारमें-१, ५-६, १४-१६, ४४; ४६* १, ४९-५२, ७०, ७४, ७६, ८४, ८६-८७.९९, १०२, १११ २-४, ११४-११६, १२८-१२९, १३४-१३७, १३७* ५, १३८-५४०, १४२, १४४-१४७, १५२-१५५, १५७-१६५, १६८, १७८-१८१, १८५, १९७, २००, २०५-२१२ । किन्तु इन प्रतियोंमें दोहे अधिक है, जो न तो ब्रह्मदेव की प्रतिमें पाये जाते है, और न बालचन्द्र की हो प्रतिमें, कुछ संशोधनके साथ दोनों दोहे नीचे दिये जाते हैं१-१, ४६ के बाद जो जाणइ सो जाणि जिय जो पेक्खइ सो पेक्खु । अंतुबहुंतु वि जंपु चइ होउण तुहुँ णिखेक्खु ।। २-२, २१४ के बाद भव्वाभव्वह जो चरणु सरिसु ण तेण हि मोक्खु । लद्धि ज भव्वह रयणत्तय होइ अभिण्णे मोक्खु । 'त, क', और 'म' प्रतियाँ-इन प्रतियोंमें ब्रह्मदेवके मूलसे ( प्रक्षेपकसहित ) ११२ और बालचन्द्रके मूलसे ११८ पद्य कम है । मुझे ऐसा मालम होता है कि इन प्रतियोंके पीछे कोई मौलिक आधार अवश्य है, क्योंकि एक तो 'क' प्रतिको कन्नड़टीका ब्रह्मदेवकी टीकासे स्वतन्त्र है, और संभवतः उससे प्राचीन भी है। दूसरे इसमें ब्रह्मदेवका एक भी क्षेपक नहीं पाया जाता । तीसरे इसमें ब्रह्मदेव और बालचन्द्रसे दो गाथायें अधिक हैं। चौथे, ब्रह्मदेवने २,१४३ में 'जिणु सामिउ सम्मत्त' पाठ रक्खा है तथा टीकामें दूसरे पाठान्तर 'सिवसंगमु सम्मत्तु' का उल्लेख किया है। उनका दूसरा पाठान्तर 'सिवसंगम सम्मत्तु' इन प्रतियों के के 'सिउ संगम सम्मत्त' पाठसे मिलता है। किन्तु इन प्रतियोंमें अविद्यमान दोहोंका विचार करनेसे यही नतीजा निकला है कि ये प्रतियाँ परमात्मप्रकाश का संक्षिप्त रूप है। यह भी कहा जा सकता है कि इन प्रतियों का मूल ही परमात्मप्रकाशका वास्तविक मूल है, जिसे योगीन्दुके किसी शिष्य, संभवतः स्वयं भट्ट प्रभाकरने हो यह बताने के लिए कि गुरुने उसे यह उपदेश दिया था, वह बढ़ा दिया है । यद्यपि यह कल्पना आकर्षक है किन्तु इसका समर्थन करनेके लिए प्रमाण नहीं है । इन प्रतियों का आधार दक्षिण कर्नाटककी एक प्राचीन प्रति है, अतः इस कल्पनाका यह मतलब हो सकता है कि योगीन्दु दक्षिणी थे, और मूलग्रन्थ उत्तर भारतमें विस्तृत किया गया, क्योंकि ब्रह्मदेव उत्तर प्रान्तके वासी थे। किन्तु योगीन्दु को दक्षिणी सिद्ध करने के लिए कोई भी प्रमाण नहीं है। पर इतना निश्चित है कि परमात्मप्रकाशको 'त' 'क' और 'म' प्रतिके रूपमें संक्षिप्त करनेके लिए कोई कारण अवश्य रहा होगा। संभवतः दक्षिण भारतमें, जहाँ शंकराचार्य, रामानुज आदिके समयमें जैनोंको वेदान्त और शैवोंके विरुद्ध वाद-विवाद करना पड़ता था, किसी कन्नडटोकाकारके द्वारा यह संक्षिप्त रूप किया गया है। जोइन्दुके मूलपर मेरा मत-उपलब्ध प्रतियोंके आधारपर यह निर्णय कर सकना असंभव है कि जोइन्दुकृत परमात्मप्रकाश का शुद्ध मूल कितना है ? किन्तु दोहोंको संख्यापर दृष्टि डालनेसे यह जान पड़ता है कि ब्रह्मदेवका मूल ही जोइन्दुके मूलके अधिक निकट है । संक्षेपमें परमात्मप्रकाशका विषय-परिचय सारांश-प्रारम्भके सात दोहोंमें पंचपरमेष्ठीको नमस्कार किया गया है । फिर तीन दोहोंमें ग्रन्थकी उत्यानिका है । पाँचमें बहिरात्मा, अन्तरात्मा और परमात्माका स्वरूप बताया गया है। इसके बाद दस दोहोंमें विकलपरमात्माका स्वरूप आता है। पांच क्षेपकों सहित चौबीस दोहोंमे सकलपरमात्माका वर्णन है। ६ दोहोंमें जीवके स्वशरीर-प्रमाणकी चर्चा है । फिर द्रव्य, गुण, पर्याय, कर्म, निश्चयसम्यग्दृष्टि, मिथ्यात्व Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org.
SR No.001524
Book TitleParmatmaprakash
Original Sutra AuthorYogindudev
AuthorA N Upadhye
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1988
Total Pages182
LanguagePrakrit, Apabhramsha, English, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Spiritual
File Size13 MB
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