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________________ परमात्मप्रकाश शिक्षक कहते हैं; कुछ इसे मनोविज्ञान से शून्य बतलाते हैं। किन्तु परमात्मप्रकाश स्पष्ट बतलाता है कि आध्यात्मिक गूढ़वादका जैनधर्ममें क्या स्थान है और वह कैसे मनोविज्ञानका आधार होता है। यदि हम यह याद रक्खें कि जैनधर्म अनेक देवतावादी है और ईश्वरको जगतका कर्ता नहीं मानता, तो यह निश्चित है कि जैन गूढ़वाद सभीको विशेष रोचक मालूम होगा। परमात्मप्रकाशके पहले संस्करण-सन १९०९ ई० में देवबन्दके बाबू सूरजभानुजी वकोलने हिन्दी अनुवादके साथ इस ग्रन्थको प्रकाशित किया था, और उसका नाम रक्खा था 'श्रीपरमात्मप्रकाश प्राकृत ग्रन्थ, हिन्दी-भाषा अर्थसहित । इस संस्करणमें मूल सावधानीसे नहीं छपाया गया था। प्रस्तावनामें प्रकाशकने लिखा भी था कि जैनमन्दिरोंसे प्राप्त अनेक प्रतियोंकी सहायता लेनेपर भी उसका शुद्ध करना कठिन था। सन् १९१५ ई० में इसका बाबू ऋषभदासजी बी० ए० वकीलका अंग्रेजी अनुवाद आरासे प्रकाशित हुआ । किन्तु यह अनुवाद सन्तोषजनक न था । सन् १९१६ ई० में रायचन्द्रजैनशास्त्रमाला बम्बई ब्रह्मदेवकी संस्कृतटीका और पं० मनोहरलालजीके द्वारा आधुनिक हिन्दी में परिवर्तित पं० दौलतरामजीकी भाषाटीकाके साथ इसे प्रकाशित किया। यद्यपि इसके मूल में भी सुधारकी आवश्यकता थो, फिर भी यह एक अच्छा संस्करण था। वर्तमान संस्करण--यद्यपि रायचन्द्रजैनशास्त्रमालाके पूर्वोक्त संस्करणको हो यह दूसरी आवृत्ति है, फिर भी यह संस्करण पहलेसे परिष्कृत और बड़ा है, और इसकी यह भूमिका तो एक नई वस्तु है । प्रकाशककी इच्छानुसार मूल, ब्रह्मदेवकी टीकावाला हो दिया गया है, किन्तु हस्तलिखित प्रतियोंके आधारसे मूल तथा संस्कृतटीकाका संशोधन कर लिया गया है। इसके सिवा समस्त पदों के मध्यमें संयोजक चिह्न लगाये गये हैं, तथा अनुनासिक और अनुस्वारके अन्तरका ध्यान रक्सा गया है। संस्कृतछायामें भी कई जगह परिवर्तन किया गया है । हिन्दीटोकामें भी जहाँ तहां सुधार किया गया है। मल और भाषा सम्बन्धी निर्णय-इस संस्करणमें मूल ब्रह्मदेवका ही दिया गया है अर्थात् संस्कृतटीका बताते समय ब्रह्मदेवके सामने परमात्मप्रकाशके दोहोंको जो रूपरेखा उपस्थित थी, या जिस रूपरेखाके आधारपर उन्होंने अपनी टीका रची थी, इस संस्करणमें भी उसीका अनुसरण किया गया है। किन्तु हमें यह न भूलना चाहिये कि ब्रह्मदेवके मूलवाली प्रतियोंमें भी पाठ-भेद पाए जाते थे। परमात्मप्रकाशके परम्परागत पाठको जानने के लिये भारतके विभिन्न प्रान्तोंसे मंगाई गई कोई दस प्रतियों को मैंने देखा है, और उनमेंसे चुनी हुई छः प्रतियोंके पाठान्तर अन्त में दे दिये हैं। अतः भाषासम्बन्धी चर्चा अनेक हस्तलिखित प्रतियोंके पाठान्तरोंके आधारपर की गई है। परमात्मप्रकाशका मूल ब्रह्मदेवका मूल-ब्रह्मदेवने परमात्मप्रकाशके दो भाग किये है । प्रथम अधिकारमें १२६, और द्वितीयमें २१९ दोहे हैं । इनमें क्षेपक भी सम्मिलित हैं। ब्रह्मदेवने क्षेपकके भी दो भाग कर दिये हैं, एक 'प्रक्षेपक' ( जो मूलमें सम्मिलित कर लिया गया है ) और दूसरा 'स्थलसंख्या-बाह्य प्रक्षेपक' ( जो मूलमें सम्मिलित कर लिया गया है ) और दूसरा स्थलसंख्या-बाह्य-प्रक्षेपक' (जो मूलमें सम्मिलित नहीं किया गया है) उनका मूल इस प्रकार हैप्रथम अधिकार-मूल दोहे ११८ प्रक्ष पक स्थ० बा०प्र० Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org -
SR No.001524
Book TitleParmatmaprakash
Original Sutra AuthorYogindudev
AuthorA N Upadhye
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1988
Total Pages182
LanguagePrakrit, Apabhramsha, English, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Spiritual
File Size13 MB
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