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अष्टमोऽध्यायः
सद्धर्म का स्वरूप
[आठवे अध्याय में धर्म को आत्मा का यान बताया गया है जिसमें ज्ञानी पुरुष मार्ग-प्रकाशक, चारित्री उसके नियामक तथा श्रद्धालु उसमें बैठकर भवसागर से पार जाते हैं। इस रूपक का यह आशय है कि ज्ञानियों ने मार्ग बताया है, चारित्रधारी साधु समुदाय ने उस मार्ग का नियमन किया है एवं श्रद्धावान् उस मार्गपर चल रहे हैं। ज्ञान के लिए शरीर में पांच ज्ञानेन्द्रियाँ हैं तथा कर्म के लिए पांच कर्मेन्द्रियाँ हैं। श्रद्धापूर्वक इनका प्रयोग होने से सभी कार्य सिद्ध होते हैं। इसी अध्याय में हिंसामय कथित धर्मों एवं देवी देवताओं का स्वरूप बताकर उनकी निन्दा करते हुए अहिंसाप्रधान जैनधर्म के स्वरूप का विवेचन किया गया है कि जिस धर्म में क्षभावान् गुरु सर्वज्ञ रूप में जीव की रक्षा में तत्पर हैं उस धर्म का मूळ विनय है, स्वरूप यम नियमादिमय हैं, उसका विस्तार पंचाचार एवं फल मोक्ष है। यही जैनधर्म का स्वरूप है।]
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अर्हद्गीता
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