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__ अर्थ-धर्म रूपी वृक्ष का बीज ज्ञान है, दृढ़ता होने से सम्यक्त्व मूल है, और उसका पांच प्रकार का चारित्र उसकी शाखाएं हैं एवं उसका फल मोक्ष है।
वातं विजयते ज्ञानं दर्शन पित्तवारणम् । कफनाशाय चरणं धर्मस्तेनामृतायते ॥ १५॥
अन्वय-ज्ञानं वातं विजयते, दर्शनं पित्तवारणं, कफनाशाय चरणं तेन धर्मः अमृतायते॥१५॥
अर्थ-ज्ञान से वात दोष जीता जाता है, दर्शन से अर्थात् सम्यक् श्रद्धा से पित्त दोष जीता जाता है एवं चारित्र से कफ दोष समाप्त होता है। अतः धर्म संसार में अमृत ही है ।
दक्षिणांगं भवेद् ज्ञानं वामांग भक्तिभाजनम् । मध्यभागेऽस्ति चारित्रं धर्मदेहस्य साधनम् ॥ १६॥
अन्वय-धर्म देहस्य साधनं ज्ञानं दक्षिणांगं भक्तिभाजनं वामांग भवेत् चारित्रं मध्यभागे अस्ति ।। १६ ॥
अर्थ-धर्म शरीर का साधन ज्ञान उसका दाहिना अंग है, भक्तिमयता उसका बायां अंग है, चारित्र उसका मध्य भाग है। इस प्रकार ज्ञान, दर्शन चारित्र से धर्म शरीर की साधना पूर्ण होती है। धर्म अमृत स्वरूप है।
ज्ञाने पुंस्त्वं पुनः स्त्रीत्वं भक्त्या दर्शनवृद्धये । तदंगजन्मा चारित्राचारः स्यादुभयोत्तमः॥१७॥
अन्वय-ज्ञाने पुंस्त्वं पुनः भक्त्या दर्शनवृद्धये स्त्रीत्वं तदंगजन्मा चारित्राचारः उभयोत्तमः स्यात् ॥ १७॥
अर्थ-ज्ञान में पुरुषत्व है, श्रद्धा की वृद्धि के हेतु की गई भक्ति से दर्शन में स्त्रीत्व है। इन दोनो से उत्पन्न चारित्राचार दोनो में सर्वोत्तम
ईद्गीता
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