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षष्ठोऽध्यायः
ज्ञान दर्शन चारित्र प्रधान धर्म
[छठे अध्याय में गौतम स्वामी ने फिर पूछा है - संसार के सभी शास्त्रों में धर्म को ऐश्वर्यमय एवं प्रधान क्यों माना जाता है ? भगवान ने उत्तर दिया - अन्य शास्त्रानुकूल आचरण करने पर भी फल तो भाग्याधीन है पर धर्म का सुफल तो निश्चित ही है। संसार में जो विभिन्नता दिखाई देती है वह जीवमात्र के अशुभ कर्मों का फल है। संसार में अधर्म व्याप्त है पर उसमें प्रधानता धर्म की है वैसे ही शरीर में अजीव (पुद्गल) की स्थिति दिखाई देते हुए भी जीव तत्त्व की ही प्रधानता है। जैसे संसार में भूत, वर्तमान तथा भविष्य तीन काल है वैसे ही धर्म में भी ज्ञान, दर्शन तथा चारित्र की त्रयी प्रमुख है। धर्म का मूल ज्ञान है, दर्शन उसका मध्य विस्तार है तथा उसका समाहार चारित्र है इन तीनों में चैतन्य (उपयोग) की प्रधानता है। शान, दर्शन तथा चारित्र से धर्म शरीर की साधना पूर्ण होती है।]
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षष्ठोऽध्यायः
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