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अर्थ-मोह से आकृष्ट की आत्म ज्योति विचलित होती है और ज्ञानमय आत्मा की ज्योति शांत होती है। उत्तेजित होने से उन्मार्ग गमन होता है और शांत रहने से शाश्वत धर्मरूचि प्राप्त होती है।
स्फुरन्तु विविधाचाराश्वारा इव महीभुजः। शास्त्राभ्यासेऽतिचतुरा न्याय्या धम्र्यैव तक्रिया ॥१७॥
अन्वय-शास्त्राभ्यासे महीभुजः चाराः इव अति चतुराः विविधा चाराः स्फुरन्तु तक्रिया न्याय्या धा एव ॥१७॥
अर्थ-शास्त्राभ्यास होने पर चारित्र रूप विविध आचार उसी प्रकार प्रकट होते हैं जिस प्रकार कि राजा के राज्य नीति शास्त्र पढ़ने पर अति चतुर गुप्तचर प्रकट होते हैं अतः तदनुसार (शास्त्रानुसार ) क्रिया करना न्याय एवं धर्मसम्मत है।
धर्मादेव जयः पापात् क्षयो लोकोक्तिरीदृशी। धर्मस्तयैव प्रत्येयस्तत्र विप्रतिदर्शनम् ॥१८॥
अन्वय-धर्मात् एव जयः पापात् क्षयः ईदृशी लोकोक्तिः। तया एव धर्मः प्रत्येयः तत्र विप्रति दर्शनम् ॥ १८॥
अर्थ-संसार में ऐसी कहावत है कि धर्म से जय एवं पाप से क्षय होता है। इस लोकोक्ति से ही धर्म पर विश्वास करना चाहिए इसके विरोध से प्रतिकूलता होती है।
मायाचरित्रे चतुरोऽप्युच्यते शठ एव सः । चौरो मलिम्लुचः स्नातोऽप्ययं धर्मस्य निर्णयः ॥१९॥
अन्वय-स्नातः अपि मायाचरित्रे चतुरः अपि चौरों मलिम्लुचः स शठ एव उच्यते अयं धर्मस्य निर्णयः॥ १९ ॥
अर्थ-स्नान आदि से बाह्य मलत्यागी किन्तु माया का आचरण करने वाला चतुर चौर अथवा डाकू दुष्ट ही है यह धर्म का निर्णय है।
पंचमोऽध्यायः
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