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अर्थ - दया, दान, दम आदि को सभी शास्त्रो में निश्चित रूप यह धर्म क्रियाएं मानते हैं अतः हमें इस धर्म विधि का पालन करना चाहिए । इससे अन्य धर्म का क्या प्रमाण हो सकता है ? ।
तपसि स्वात्मपीड़ा स्यात् परपीड़ाचनादिषु । तथापि जगति श्लाधा पावित्र्यं धर्मनिश्वयात् ॥ ११ ॥
अन्वय - तपसि स्वात्मपीड़ा स्यात् अर्चनादिषु परपीड़ा स्यात् तथापि धर्मनिश्चयात् पावित्र्यं जगति श्लाघा च भवति ॥। ११ ॥
अर्थ - तपस्या से स्वयं को पीड़ा होती है एवं अर्चनादि कार्यों में दूसरों को पीड़ा होती है ( पूज्य को विक्षेप से पीडा होती है) फिरभी ये दोनों कार्य धर्मनिश्चय से धार्मिक हैं अतः पवित्र हैं एवं संसार में उनकी प्रशंसा होती है ।
शृंगाराद्यैः रसैः स्पष्टै अष्टधाऽपि प्रदीपितैः ।
शान्तनामा हि नयमो रसः साध्यः क्रमाद् ध्रुवः ।। १२ ।।
अन्वय-शृंगाराद्यैः रसैः अष्टधा स्पष्टैः प्रदीपितैः अपि क्रमाद् शान्त नामा हि नवमो रसः ध्रुवः साध्यः ॥ १२ ॥
अर्थ - शृंगार, करुण, वीर, रौद्र भयानक आदि आठ रसों के स्पष्ट रूप से व्यक्त होने पर भी क्रमशः शान्त नाम का नवाँ रस ही निश्चय रूप से साध्य होता है अर्थात् जिस प्रकार सभी रसों की परिणति शान्त नाम के नवें रस में होती है वैसे ही सभी कार्यो की अन्तिम परिणति धर्म में होती है ।
इत्येभिः प्रत्ययैर्यस्य मनो न धर्मकामनम् ।
उच्छृंखल श्रृंखलकं तस्य नैवास्ति दामनम् ॥ १३ ॥
अन्वय- इति एभिः प्रत्ययैः यस्य उच्छृंखलश्रृंखलकं मनो धर्म कामनं न (भवति) तस्य दामनं नैवास्ति ॥ १३ ॥
पंचमोऽध्यायः
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