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________________ अन्वय-ज्ञानवान् अशुभध्यानरोधिकाः निर्विक्रियाः क्रियाः कुर्वन् शिववासे न रोधिकाः लीला अश्नुते ॥ १९ ॥ अर्थ-ज्ञानी अशुभ ध्यान को रोकने वाली निर्विकारी क्रियाओं को करता हुआ मोक्ष मार्ग में निर्बाघ आनन्द को प्राप्त करता है । अनन्तमव्ययं भास्वत् स्वतो जातमहोदयम् । ऐन्द्रं ज्योतिर्जनमभ्रं भ्राजतां शुचि सौरवत् ।। २० ॥ अन्वय-अनन्तं अव्ययं भास्वत् स्वतः जातमहोदयं शुचि ऐन्द्रं ज्योतिः जनं अभ्रं सौरवत् भ्राजतां तथा ॥ २० ॥ अर्थ-अनन्त, अव्यय, प्रकाशमान स्वतः महोदय को प्राप्त पवित्र आत्मज्योति लोक और आकाश को सूर्य की भाँति प्रकाशित करे। अनालम्बमनाछाद्यं न मूर्त व्याप्तमञ्जसा । तेजोऽनन्तमिवानन्तमैन्द्रं जयतु भास्वरम् ॥ २१ ॥ अन्वय-अनालम्बं अनाछाद्यं न मूर्त अञ्जसा व्याप्त अनन्तं तेजः इव अनन्तं भास्वरं ऐन्द्रं जयतु ॥ २१ ॥ अर्थ-किसी प्रकार के आलम्बन एवं आच्छादन से रहित अमूर्त (अरूप ) एवं अनन्त तेज के समान तुरंत व्याप्त प्रकाशमान आत्म ज्योति की जय हो। ॥ इति तृतीयोऽध्यायः ॥ ४० अहंद्गीता Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001512
Book TitleArhadgita
Original Sutra AuthorMeghvijay
AuthorSohanlal Patni
PublisherJain Sahitya Vikas Mandal
Publication Year1981
Total Pages258
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Sermon
File Size16 MB
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