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________________ कान्तारागमिवाऽसेव्यं कान्तारागं स मन्यते । दुःखं कञ्चुकीसंसर्गं मत्वा तत्त्वाशयः पुमान् ॥ १६॥ अन्वय-कान्तारागं इव असेव्यं कञ्चुकीसंसर्ग दुःखं मत्वा स तत्त्वाशयः पुमान् कान्त अरागं मन्यते ॥ १६ ॥ अर्थ - स्त्रियों के प्रति आसक्ति नही रखता हुआ एवं कञ्चुकी संसर्ग आदि भोगविलासकी भावनाओं को दुःख का मूल कारण मानकर तत्त्वज्ञानी पुरुष अभीष्ट वैराग्य भावना की अनुमोदना एवं बहुमान करता है 1 संयोगान्सकलान्दत्त - विप्रयोगान्विमर्शयन् । पूर्वमेव वियोगार्थी यतिर्जयतिविद्विषः ।। १७ ॥ अन्वय- संयोगात् सकलान् दत्तविप्रयोगान् विमर्शयन वियोगार्थी यतिः पूर्वमेव विद्विषः जयति ॥ १७ ॥ अर्थ-सारे संयोग वियोग में परिणमित होने वाले हैं यह सोचकर वियोग (वैराग्य ) को चाहने वाला साधु पहले ही काम मद, मोह, आदि शत्रुओं को जीत लेता है । वैभवं वै भवं चित्ते चिन्तयन् सुकृतैकदृक् । भोगानिव भुजङ्गानां भोगान् स दूरतस्त्यजेत् ॥ १८ ॥ अन्वय-स सुकृतैकदृक् चित्ते वैभवं वै भवं चिन्तयन् भुजङ्गानां भोगान् इव भोगान् दूरतः त्यजेत् ॥ १८ ॥ अर्थ - मात्र पुण्याभिलाषी वह ज्ञानी पुरुष चित्त में सांसारिक वैभव व सम्पत्ति को निश्चय ही संसारचक्र एवं पुनर्जन्म का कारण मानकर सर्प के फनों के समान सांसारिक भोगों को दूर से ही त्याग देता है । निर्विक्रियाः क्रियाः कुर्वन्नशुभध्यानरोधिकाः । ज्ञानवानश्नुते लीलाः शिववासे न रोधिकाः ॥ १९॥ अध्याय तृतीयः Jain Education International For Private & Personal Use Only ३९ www.jainelibrary.org
SR No.001512
Book TitleArhadgita
Original Sutra AuthorMeghvijay
AuthorSohanlal Patni
PublisherJain Sahitya Vikas Mandal
Publication Year1981
Total Pages258
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Sermon
File Size16 MB
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