SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 46
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ अर्थ संसार में कुछ लोग केवल ज्ञान शून्य हो जाने को मुक्ति कहते हैं तो कुछ केवल तपोबल से मुक्ति प्राप्ति की बात करते हैं। कुछ सम्प्रदाय तो केवल भक्ति योग से ही मोक्ष की प्राप्ति बताते हैं पर हम (जैन दर्शन में ) अध्यात्म भावना से ही मुक्ति प्राप्ति की बात कहते हैं। विवेचन-यहाँ केवल शब्द से यह संकेत दिया है कि जैन दर्शन एकांगीनय वाला नहीं है। वह स्यावाद पर आधारित है क्योंकि अध्यात्म भावना के अन्तर्गत ज्ञान दर्शन (भक्तिश्रद्धा ) एवं तप तीनों का समावेश हो जाता है। शास्त्रानुवादादध्यात्म कथनान्नात्मभावनम् । नेच्छाधुपरमो यावत्तावन्नाध्यात्मिको जनः ॥ १४ ॥ अन्वय-शास्त्रानुवादात् अध्यात्म कथनात् न आत्मभावनम् । यावत् इच्छादि उपरमः न तावत् जनः आध्यात्मिको (भवति) ॥ १४ ॥ अर्थ-केवल शास्त्रों के पठन पाठन तथा प्रशंसा से एवं अध्यात्म की बात करने से ही आत्मभावना का विकास नहीं होता है। व्यक्ति तभी आध्यात्मिक होता है जब कि उसकी इच्छादि संसार भावनाओं का विराम होता है। अनिच्छुर्विषयासक्तोऽप्याध्यात्मिकशिरोमणिः। यतिर्यो गी ब्राह्मणो वापीच्छावान्नात्मबोधकः ॥ १५॥ अन्वय-विषयासक्तोऽपि अनिच्छुः आध्यात्मिक शिरोमणिः । इच्छावान् यतिः योगी ब्राह्मणो वापि आत्मबोधकः न ॥ १५॥ अर्थ-विषयों में अवस्थित पुरुष भी यदि निष्काम भाव युक्त हो तो वह आध्यात्मिक पुरुषों में श्रेष्ठ गिना जाता है। यति योगी अथवा ब्राह्मण भी यदि इच्छावान् हो तो वह आत्मज्ञानी नहीं माना जाता है। विवेचन तुलना कीजिए यदा मरुन्नरेन्द्रश्रीस्त्वया नाथोपभुज्यते, यत्र तत्र रतिर्नाम विरक्तत्वं तदापि ते ।--" वीतराग स्तोत्र" मूर्छाच्छन्नधियां सर्वजगदेव परिग्रहः । मूळुयारहितानां तु जगदेवापरिग्रहः ॥ अध्याय प्रथमः २१ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001512
Book TitleArhadgita
Original Sutra AuthorMeghvijay
AuthorSohanlal Patni
PublisherJain Sahitya Vikas Mandal
Publication Year1981
Total Pages258
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Sermon
File Size16 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy