________________
अन्वय-यस्य कषाय विषय हेतुः तावान् परिग्रहः तस्यापि भरतस्य आत्मभावनात् कैवल्यं अभूत् ॥ ११ ॥
अर्थ-भरत चक्रवर्तीजी के विषय कषाय का कारणभूत कितना अधिक प्रमाण में परिग्रह था पर केवल आत्मभावना से उन्हें केवलज्ञान प्राप्त हो गया।
विवेचन-श्री ऋषभदेव भगवान् के सबसे बड़े पुत्र भरत चक्रवर्ती अपने आरीसा भुवन में अपने वस्त्राभूषित शरीर को निरख रहे थे। उस समय एक अंगुली से एक अंगूठी गिर पड़ी उन्हें यह लगा कि अंगुलि शोभारहित हो गई है उन्होंने एक एक कर सारे गहने उतार दिए एवं यह भावना की कि संसार में जो कुछ आँखों से देखा जा रहा है वह अनित्य है। नित्य तो केवल आत्मा है और उन्हें केवलज्ञान प्राप्त हो गया।
येनात्मात्मन्यवस्थाता तद्वैराग्यं प्रशस्यते । आत्मैव ह्यात्मना वेद्यो ज्ञानात् शिवमयोऽव्ययः ॥ १२ ॥
अन्वय-येन आत्मा आत्मनि अवस्थाता तत् वैराग्यं प्रशस्यते आत्मना हि आत्मा वेद्यो । शिवमयः अव्ययः ज्ञानात् एव ॥ १२ ॥
अर्थ-जिसके द्वारा आत्मा को आत्मनिष्ठ बनाया जाय अथवा जिसके द्वारा आत्मा स्वरूपानुसंधान करे उसे ही उच्च वैराग्य कहा जाता है। संसार में आत्मा से ही आत्मा को जानना चाहिए और आत्मा को मोक्षमय अव्यय परमात्मपद केवल इसी आत्मज्ञान से ही होगा।
विवेचन-वैराग्य का अर्थ है कि यह आत्मा को बाह्य वस्तुओं से विरमित कर अन्तर्मुखी करे। आत्मा में अन्तर्दर्शन से ही आत्म भावना की सिद्धि, लब्धि, अनुभूति होगी। क्योंकि कहा गया है "उद्धरेदात्मनात्मानम्" अपना उद्धार स्वयं करो अर्थात् अपने आपको पहचानो।
अज्ञानात्केचन प्राहुर्मुक्ति केचित्तपोबलात् । भजनात्केवलात्केचिद्वयं चाध्यात्मभावनात् ॥१३॥
अन्वय-केचन अज्ञानात् मुक्तिं प्राहुः, केचित् तपोबलात्, केचित् भजनात् केवलात्, वयं च आध्यात्मभावनात् ॥ १३ ॥
भागीता
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org