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________________ अन्वय-द्रव्याणां पर्यायपरिभावनैः इच्छाविनाशाद् मनोदमनकृद् गीताम्यासो हि शिवसाधनम् ॥ ५॥ अर्थ-द्रव्यों के पर्याय हैं एवं पर्याय के बिना द्रव्य नहीं है, द्रव्य उत्पाद व्यय एवं ध्रौव्यात्मक है वह सत् है, उसके पर्याय ( परिणाम ) बदलते रहें पर वह शाश्वत है ऐसी भावना से आत्म-निष्ठ भावना परिपुष्ट होती है एवं संसार से विरक्ति हो इच्छा का विनाश हो जाता है। अतः द्रव्यों (षड्द्रव्यों ) एवं उनके पर्याय ( परिणाम ) भावना पर विचार करने से संसार के प्रति आसक्ति कम हो जाती है और यह काम गीताभ्यास से साध्य है उसमें षड्व्य का खूब विवेचन किया गया है अतः प्राणियों के लिए गीताभ्यास मोक्ष का साधन है । विवचन-यह गीता द्रव्य परिणाम पर आलोचन प्रत्यालोचन करने के कारण मन का दमन करनेवाली है एवं मन ही मनुष्यों के बन्ध एवं मोक्ष का कारणभूत है। द्रव्यों के परिणाम की परिभावना से द्रव्य के सत् रूप के प्रकट होने से संसार के प्रति अनासक्ति-विरक्ति की भावना उत्पन्न होती है। जायते पवनाभ्यासाजाड्यमैहिकसिद्धये । देवाः सागरसंख्यानैरानपानैर्न मुक्तिगाः ॥६॥ अन्वय-पवनाभ्यासात् जाड्यं ऐहिकसिद्धये जायते सागर संख्यानैः आनपानैः देवाः न मुक्तिगाः ॥ ६॥ अर्थ-पूर्व में मन का दमन करने की बात कही गई है। मन का दपन कर उसकी चञ्चलता का अपहार कर स्थिरता प्राप्त करने के लिए प्राणायाम भी किया जाता है परन्तु प्राणायाम से जो मानसिक जडता प्राप्त होती है वह मात्र सांसारिक सिद्धियों को देने वाली है। उससे पारलौकिक सिद्धि या परमपद की प्राप्ति नहीं हो सकती है। सागरोपमसंख्या के आयुष्य वाले देवता दीर्घकालीन कुम्भकरूप प्राणायाम करने पर भी मुक्ति नहीं प्राप्त कर सके हैं। अध्याय प्रथमः अ. गी.-२ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001512
Book TitleArhadgita
Original Sutra AuthorMeghvijay
AuthorSohanlal Patni
PublisherJain Sahitya Vikas Mandal
Publication Year1981
Total Pages258
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Sermon
File Size16 MB
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