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________________ श्री भगवानुवाच प्राप्तेऽपि नृभवे यत्नः कार्यः प्राणभृता तथा । परमेष्ठिपदं येन लभ्यतेऽत्राऽपुनर्भवम् ॥ ३॥ अन्वय-नृभवे प्राप्तेऽपि प्राणभृता तथा यत्नः कार्यः येन अत्र अपुनर्भवं परमेष्ठिपदं लभ्यते ॥ ३॥ अर्थ-मनुष्य योनि प्राप्त कर भी प्राणधारियों को वैसा यत्न करना चाहिए जिससे इस संसार में मुक्त परमेष्ठिपद की प्राप्ति हो। विवेचन-यहाँ 'प्राप्तेऽपि नृभवे' में 'अपि' शब्द का प्रयोग यह सूचित करता है कि मानव जीवन बहुत मूल्यवान है एवं उससे बहुत से लोग सन्तुष्ट हो जाते हैं अत: यह कहा गया है कि मनुष्य भव की प्राप्ति होने के बावजूद भी जीवधारियों को मोक्ष पद की प्राप्ति के लिए प्रयत्न करना चाहिए। परमेष्ठि पद यानि मुक्तावस्था कैसी है ? इस पर विवेचन करते हुए स्पष्ट किया है कि वह पुनर्जन्म से रहित है। हेतुस्तस्य पुनर्ज्ञानं वैराग्यजनकं क्रमात् । तद्ज्ञानं प्रथमं गीताभ्याससाध्यं पशोरपि ॥ ४ ॥ अन्वय-पुनः ज्ञानं तस्य (परमेष्ठिपदस्य) हेतुः क्रमात् वैराग्य जनकं (च) तदशानं पशोः अपि प्रथमं गीताभ्याससाध्यं (अस्ति)॥४॥ अर्थ-परमेष्ठिपद मानव जीवन का चरम लक्ष्य है एवं उसकी प्राप्ति का कारण ज्ञान है जो अनुक्रम से वैराग्य भावना का जनक है। परमेष्ठिपद की प्राप्ति में सहायक यह ज्ञान भी पशुभाव में स्थित प्राणियों को भी गीताभ्यास से साध्य है। विवेचन-ज्ञानोपयोग ही संसार से विरक्ति का मूल हेतु है । यह ज्ञानोपयोग गीताभ्यास रूप तत्त्वज्ञान से साध्य है। मनोदमनकृद्गीताभ्यासो हि शिवसाधनम् । इच्छाविनाशाद् द्रव्याणां पर्यायपरिभावनैः ॥ ५॥ श्री अर्हद्गीता Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001512
Book TitleArhadgita
Original Sutra AuthorMeghvijay
AuthorSohanlal Patni
PublisherJain Sahitya Vikas Mandal
Publication Year1981
Total Pages258
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Sermon
File Size16 MB
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