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________________ 'मुख्यैव कर्मबंधाय' इति अस्त्राय फट् ॥ श्रीजिनेश्वरप्रीत्यर्थं जपे विनियोगः ॥ ॐ सकल शास्त्र रहस्य भूत इस श्री अर्हद्गीता रूप परम आगम बीजमंत्र के ऋषि गौतम हैं, छन्द अनुष्टुप है, श्री सर्वज्ञ जिनेश्वर भगवान देवता हैं ! मनुष्य जन्म को प्राप्त कर प्राणधारियों को इसके लिए यत्न करना चाहिए - यह इसका बीज है। इससे आत्मा में स्थित वैराग्य भावना प्रशस्त हो यह इसकी शक्ति है। संसारी बद्ध जीव भी इसके आश्रय से ही निश्चय ही क्रमशः मुक्त हो यह इस मंत्र का कीलक है। विषयासक्त भी निष्काम एवं आध्यात्मिक शिरोमणि हो अंगुष्ठ मुद्रा से नमस्कार । यति योगी अथवा ब्राह्मण भी इच्छावान् आत्म बोधक हो तर्जनी मुद्रा से नमस्कार । क्रमशः इच्छा पर विजय प्राप्त करने से आध्यात्मिक तरतमता प्राप्त हो-मध्यमा अंगुलि मुद्रा से नमस्कार। अज्ञान ही मोह है उसी से इच्छा एवं इच्छा से ही संसार पैदा होता है - अनामिका अंगुलि मुद्रा से नमस्कार। इच्छा अथवा अनिच्छा से एक क्रिया भी स्वरूप से हो- कनिष्ठिका अंगुलि मुद्रा से नमस्कार। जगद्विद्या कर्मबन्धन के लिए व पराविद्या निर्जरा के लिए दोनों हथेलियों की मुद्रा से नमस्कार । अनिच्छुक या विषयासक्त को हृदय से नमस्कार करना चाहिए। यति योगी अथवा ब्राह्मण को शिर से स्वाहा। आध्यात्मिक तरतमता को शिखा से वषट् । अज्ञान को ही मोह कहते हैं - कवच के लिए हूँ। इच्छा अनिच्छा से भी हो तो भी ज्ञानादि (ज्ञान दर्शन चारित्र) तीन नेत्रों के लिए संवौषट्। मुख्य (जगद्विद्या- यश आदि) कर्म बंधन के लिए हैं अतः अस्त्र के लिए फट। इस प्रकार जिनेश्वर देव की प्रीति के लिए जप में विनियोग है। [ध्यानम् ] ( शार्दूलविक्रीडितम् ) श्रीवीरेण विबोधिता भगवता श्रीगौतमाय स्वयं । सूत्रेण ग्रथितेन्द्रभूतिमुनिना सा द्वादशांग्यां पराम् । अद्वैतामृतवर्षिणी भगवतीं षट्त्रिंशदध्यायिनी मातस्त्वां मनसा दधामि भगवद्गीते भवद्वेषिणीम् ॥ श्री अहंद्गीता Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001512
Book TitleArhadgita
Original Sutra AuthorMeghvijay
AuthorSohanlal Patni
PublisherJain Sahitya Vikas Mandal
Publication Year1981
Total Pages258
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Sermon
File Size16 MB
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