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________________ अर्थ - अनन्त होने के कारण लोकालोक भी महान् ब्रह्म नाम को धारण करते हैं । उनका ज्ञान भी सद्ब्रह्म है । जिस प्रकार अभि के उपयोग में स्थित मनुष्यों को भी अग्नि ही माना जाता है वैसे ही ब्रह्म ज्ञान भी ब्रह्म स्वरूप ही होता है। 1 स्त्रियां स्त्रीवाचको ग्रामः ग्रामाख्या ग्रामवासिनी । नष्टो ग्रामो गतो ग्राम इत्याद्याश्रयलक्षणात् ।। १३ ।। अन्वय- स्त्रियां स्त्री वाचको ग्रामः, ग्रामवासिनी ग्रामाख्य । नष्टो ग्रामः गतः ग्रामः इत्यादि आश्रयलक्षणात् ॥ १३ ॥ अर्थ - जिस गाँव में स्त्रियों का बाहुल्य हो उसे स्त्रियों के गाँव की संज्ञा दी जाती है । वैसे ही ग्राम वासिनी स्त्री को ग्रामाख्या नाम से बुलाते हैं। गाँव नष्ट नहीं हुआ पर उसके आश्रय नष्ट हुए हैं, गाँव नहीं गया पर उसके निवासी गए हैं । इस प्रकार के आश्रय लक्षणों से यह सिद्ध होता है कि संसार में लिंग से भी लिंगी की पहचान होती है । ज्ञाता ज्ञेयं तथा ब्रह्म ब्रह्मत्रयमपि स्मृतं । श्रेष्ठत्वात्परमं ब्रह्म सिद्धोऽर्ह नाप्त केवलः ॥ १४ ॥ अन्वय - ज्ञाता ज्ञेयं तथा ब्रह्म ब्रह्मत्रयमपि स्मृतं श्रेष्ठत्वात्परमं ब्रह्म सिद्धः अर्हन् आप्तकेवलः ॥ १४ ॥ अर्थ - ज्ञाता ज्ञेय तथा ज्ञान तीनों ही ब्रह्म कहे जाते हैं । इन तीनों में श्रेष्ठ होने के कारण यही परम ब्रह्म हैं, सिद्ध हैं, केवलज्ञानी हैं, अर्हत् है । विवेचन - तीर्थंकर भगवान ही परम ब्रह्म के रूप में स्थित हैं । तदुक्तार्थानुसारेण सूत्रं तद्गीतमुच्यते । तस्यैवार्थस्तु भाष्यादिर्गीतार्थस्तद्विदांवरः ॥ १५ ॥ अन्वय-तत् उक्तार्थानुसारेण तत् सूत्रं गीतं उच्यते। तस्य अर्थस्तु भाष्यादि विदांवरः गीतार्थः ( उच्यते ) । अध्याय प्रथमः Jain Education International For Private & Personal Use Only ११ www.jainelibrary.org
SR No.001512
Book TitleArhadgita
Original Sutra AuthorMeghvijay
AuthorSohanlal Patni
PublisherJain Sahitya Vikas Mandal
Publication Year1981
Total Pages258
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Sermon
File Size16 MB
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