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________________ वह श्रुतदेवत। है । श्रुत में सम्यक् ज्ञान का समावेश है और ज्ञान सदैव निर्दुष्ट शुद्ध सत्व रूप में प्रतिष्ठित है। दोष कर्मावरण से उत्पन्न होते हैं जो आठ प्रकार के है । इस ज्ञानमयी देवी को कैवल्यज्ञान स्वरूप भी कह सकते हैं क्योंकि सभी कर्मों के क्षय के कारण यह केवल शुद्ध रूप में विद्यमान होने के कारण निर्दुष्ट है। श्रुतदेवता की स्तुति में कहा गया है: सुअदेवया भगवई नाणावरणीअ-कम्म संघायं । तेसिं खवेउ सययं जेसिं सुअसायरे भत्ती ॥१॥ श्रुत के द्वादश अंग है। द्वादशांग में समग्र जैनागम का समावेश है और श्रुत की देवता सरस्वती है। इसी की कृपा से श्रुतसागर का पार पाया जा सकता है। यह सरस्वती शब्दब्रह्म एवं परब्रह्ममयी है। 'ॐ नमः सिद्धम्' में इसी ज्ञानमयी वागीश्वरी की उपासना की गई है। सिद्धचक्र की उपासना में इसी आहती गिर की उपासना है जिसमें तप, क्रिया एवं ज्ञान से अहवाणी के सार अनेकान्तवाद, सप्तभंगीनय एवं स्याद्वाद का पोषण होता है। इस सिद्धचक्र की उपासना में तपश्चर्या से ऊमता एवं तमोगुण का नाश किया जाता है। तत्पश्चात् क्रिया से निर्दुष्टता की ओर प्रयाण एवं ज्ञानोपासना से द्वादशांग का सुप्रकाश प्राप्त किया जा सकता है। सरस्वती को सुप्रकाशांगी इसलिए कहा गया है कि वह संगीतनादमयी है इसके लौकिक सप्त स्वरों में सप्तभंगीनय अर्थात् ज्ञान सूर्य की सप्तवर्णात्मिका दृष्टि है। इसकी छन्द शास्त्रानुसार ६ मात्राओं में षड्दर्शन का समुच्चय विद्यमान है। फिर यह सरस्वती इसलिए सुप्रकाशांगी है कि यह हमारे शरीर को, आत्मा को ज्ञान से सुप्रकाशित कर ज्ञानमय कर देती है "कमलदल स्तुति" में कहा गया है : कमलदलविपुलनयना कमलमुखी कमलगर्भसमगौरी। कमले स्थिता भगवती, ददातु श्रुतदेवता सिद्धिम् ॥१॥ कमल हमारी दार्शनिक परम्परा में ज्ञान का प्रतीक है। इस प्रकार सरस्वती का प्रत्येक अंग ज्ञानमय है एवं उससे आलोकित है। 'कमलदलवियुलनयना' का अर्थ है कमलदल के समान विशाल नेत्र वाली । नयन इन्द्रियों के प्रतीक हैं और इन्द्रियों को स्पर्श की संज्ञा दार्शनिक जगत में दी गई है। “कादयो मान्ताः स्पर्शाः'' के पाणीनीय सूत्र के अनुसार क से म पर्यन्त के २५ व्यञ्जन कमलदल विपुल नयना में आ जाते हैं। सरस्वती का मुख कमल के समान है, उसमें अष्टदल कमल है जिसके अन्तर्गत य र ल व श ष स ह आदि अन्तस्थ एवं ऊष्म आ जाते हैं और ‘कमल गर्भा' का अर्थ है नाभिकमल, जिसमें अकारादि १६ स्वर हैं। इस प्रकार इस श्रुतदेवता में समग्र शब्द संसार, लौकिक मातृका एवं परामातृका तथा उसका सार रूप अहँ सन्निविष्ट है। इसीलिए इसे आहती गिर कहा गया है। अध्याय प्रथमः Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001512
Book TitleArhadgita
Original Sutra AuthorMeghvijay
AuthorSohanlal Patni
PublisherJain Sahitya Vikas Mandal
Publication Year1981
Total Pages258
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Sermon
File Size16 MB
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