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________________ ___ अर्थ-क्रिया अथवा प्रवृत्ति के बिना कर्म नहीं हो सकता है और कर्ता के बिना क्रिया सम्भव नहीं हो सकती है इसलिए यही चेतन आत्मा सनातन कर्म फल का भोक्ता होता है। विवेचन-आत्मा की ज्ञान क्रिया और भोग की शक्ति से संसार की सर्व लीला हो रही है और वह स्वयं इस लीला का कर्ता है। अनन्तशक्तिरार्हन्त्य-भाजनं जनपूजितः । विष्णुरात्मा जगत्कर्ता स्थूलः सूक्ष्मः परोऽपरः ॥७॥ अन्वय-अनन्तशक्तिः आर्हन्त्यभाजनं जनपूजितः आत्मा विष्णुः जगत्कर्ता स्थूलः सूक्ष्मः परः अपरः (च)॥७॥ अर्थ-यह अनन्त शक्ति आत्मा आर्हन्त्य का पात्र होता है। एवं लोगो के द्वारा पूजा जाता है। यह आत्मा सारे संसार में व्याप्त है (विष्णु) जगत को बनानेवाला (ब्रह्मा) है स्थूल भी है सूक्ष्म भी है पर भी और अपर भी वही है। विवेचन-सर्व देहो में एक ही चैतन्य शक्ति होने से आत्मा सर्वत्र व्याप्त है। यो यद्विषयकं ज्ञानं बिभर्ति परमार्थतः । ज्ञानाद् ज्ञेयाविभेदेन कात्मा वस्तुनः सतः ॥ ८॥ अन्वय-यः आत्मा परमार्थतः यत् विषयकं ज्ञानं विभर्ति ज्ञानाद् ज्ञेयाविभेदेन आत्मा सतः वस्तुनः कर्ता ॥८॥ अर्थ-(आत्मा के कर्तृत्व को अन्य द्रष्टि से समझाते हुए कहते हैं ) कि जो आत्मा वस्तुतः जिस विषय का ज्ञान रखता है ज्ञाता और ज्ञेय के अभेद से वह सद्वस्तु का स्वयं कर्ता है। यथा घटस्य दीपः स्या-त्प्रकाशेनांशुजन्मना । स्पष्टपर्यायकर्ताऽयं तदात्मा ज्ञेयकारकः ॥ ९ ॥ एकविंशतितमोऽध्यायः १९७ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001512
Book TitleArhadgita
Original Sutra AuthorMeghvijay
AuthorSohanlal Patni
PublisherJain Sahitya Vikas Mandal
Publication Year1981
Total Pages258
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Sermon
File Size16 MB
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