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जीवाजीवमयो लोकः कर्ताऽयं परमेश्वरः । स्वरूपस्य स्वयं धर्ता सिद्धः शुद्धः सनातन ॥ ७ ॥
अन्वय-जीवाजीवमयः लोकः कर्ता अयं परमेश्वरः स्वयं स्वरूपस्य धर्ता सिद्धः शुद्धः सनातनः ॥ ७॥
अर्थ-यह संसार जीव और अजीव से युक्त है एवं परम ऐश्वर्यवान् जीव ही इसका कर्ता है। यह परमात्मा स्वयं स्वरूप को धारण करने वाला सिद्ध, शुद्ध और सनातन है।
दुग्धे सारं यथा सर्पिः पुष्पे परिमलस्तथा । तथा लोकेऽपि चैतन्यं तस्मिन्कैवल्यमुत्तमम् ॥ ८ ॥
अन्वय-यथा दुग्धे सर्पिः सारं तथा पुष्पे परिमलः। तथा लोकेऽपि चैतन्यं तस्मिन् कैवल्य उत्तमम् ॥ ८ ॥
अर्थ-जिस प्रकार दूध का सार घी है वैसे ही फूल का सार सुगन्ध है वैसे ही संसार में सार वस्तु चैतन्य है उसमें भी कैवल्य पद की प्राप्ति उत्तमोत्तम है।
सर्वसंगविनिमुक्तः सिद्धः केवलबोधनात् । स एव परमेष्ठीति गेयोऽहंस्तात्त्विकैर्जनैः ॥ ९ ॥
अन्वय-सिद्धः सर्वसंग विनिमुक्तः केवलबोधनात् स एव परमेष्टी अर्हन् इति तात्त्विकैः जनैः गेयः॥९॥
अर्थ-सिद्ध भगवान सभी प्रकार की आसक्तियों से मुक्त होते हैं। (सर्व सारभूत ) केवलज्ञान होने के कारण उन्हें ही तात्त्विक लोग परमेष्ठी और अर्हन् रूप में गाते हैं।
तेनैव मातृकापाठेऽप्यों नमः सिद्धमुच्यते । मायाङ्गजो न वा कृष्णो न रूद्रो वा नमस्कृतः ॥ १० ॥
विंशतितमोऽध्यायः
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