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अर्थ-अर्हत् एवं सिद्ध गुरुओं के नाम करण, सेवन, तत्त्वदर्शन पूजन, एकाग्रभाव से स्वरूप चिन्तन तथा (जिन) आज्ञापालन ब्राह्मण की तरह (उपासक को) महान सुख सम्पत्ति के हेतु होते हैं ।
व्यक्तशक्तिर्भक्तिरूपा-चारः संसारपारदः । धर्मस्य विनयो मूलं प्रथमं सिद्धिसाधनम् ।। २१॥
अन्वय-भक्तिरूपाचारः व्यक्तशक्तिः संसारपारदः धर्मस्य मूलं विनयः प्रथमं सिद्धिसाधनम् ॥ २१॥
अर्थ-आत्मा की तिरोहित शक्ति को व्यक्त करने वाला भक्तिरूप आचार (अर्थात् जिन उपासना) संसार से पार ले जाने वाला है एवं संसार के रोगों के लिए पारद रसायन के समान रोग निवारक है। (उपासना मार्ग में ) विनय धर्म का मूल है एवं संसार में सिद्धि प्राप्त करने का प्रथम साधन है। “विनय मूलो धम्म"।
॥ इति श्री अर्हद्गीतायां एकोनविंशोऽध्यायः ॥
एकोनविंशोऽध्यायः
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